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भद्रबाहुसंहिता यदा चान्येऽभिगच्छन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः। हिरण्यौषधयश्चैव शौण्डिका दूतलेखका:॥43॥ काश्मीरा बर्बरा: पौण्ड्रा भृगुकच्छा अनुप्रजाः।
पोड्यन्तेऽवन्तिगाश्चैव म्रियन्ते च नृपास्तथा ॥44॥ यदि अन्य ग्रह इस छठे मंडल में स्थित शुक्र के साथ संयोग करें तो हिरण्य, औषधि, शौण्डिक, दूतलेखक, काश्मीर, बर्बर, पौण्ड्र, भड़ौच, आवन्तिक पीड़ित होते हैं और नृप का मरण होता है ।। 43-44।।
नागवीथीति विज्ञेया भरणो कृत्तिकाऽश्विनो।
रोहिण्यार्दा मृगशिरगजवीथीति निदिशेत् ॥45॥ ऐरावणपथं विन्द्यात् पुष्याऽऽश्लेषा पुनर्वसुः । फाल्गुनौ च मघा चैव वृषवीथीति संजिता ॥46॥ गोवीथी रेवती चैव द्वे च प्रोष्ठपदे तथा। जरद गवपथं विन्द्याच्छवणे वसुवारुणे ॥47॥ अजवीथी विशाखा च चित्रा स्वाति: करस्तथा। ज्येष्ठा मूलाऽनुराधासु मृगवीथीति संज्ञिता ॥480 अभिजिद् द्वे तथाषाढे वैश्वानरपथ: स्मृतः।
शुक्रस्याग्रगताद्वर्णात् संस्थानाश्च फलं वदेत् ॥4॥ अश्विनी, भरणी और कृत्तिका की संज्ञा नागवीथि; रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा की गजवीथि; पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा की संज्ञा ऐरावतवीथि; पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी और मघा की संज्ञा वृषवीथि; पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद
और रेवती की गोवीथि; श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा की जरद्गववीथि; हस्त, विशाखा और चित्रा की अजवीथि; ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा की मृगवीथि एवं पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और स्वाति या अभिजित् की वैश्वानरवीथि है । शुक्र के अग्रगत वर्ण और आकार से फल का निरूपण करना चाहिए ॥45-49।।
तज्जातप्रतिरूपेण जघन्योत्तममध्यमम् ।
स्नेहादिषु शुभं ब्र याद् ऋक्षादिषु न संशयः ॥50॥ तीन-तीन नक्षत्रों की एक-एक वीथि बतायी गयी है। इन नक्षत्रों में शुक्र के
1. यदाऽवाऽन्ये मु० । 2. सत्त्वानां रोहिणी चाा, गजवीथीति निर्दिशेत् । मु० । 3. च्छवणं वसुवारुणं मु० । 4. भयं वदेत् मु० ।