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भद्रबाहुसंहिता
वृषवीथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
तदा द्वादशरात्रेण गत्वा दृश्येत पूर्वत: ॥2201 वृषवीथि को प्राप्त होकर जब शुक्र अस्त होता है तो 12 रात्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय होता है ।।2200
ऐरावणपथं प्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
तदा स दशरात्रेण पूर्वत: प्रतिदृश्यते ॥221॥ ऐरावणवीथि को प्राप्त होकर जब शुक्र अस्त होता है तो 10 रात्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है ।।221॥
गजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
अष्टरावं तदा गत्वा पूर्वत: प्रतिदृश्यते ॥2221 गजवीथि को प्राप्त होकर यदि शुक्र अस्त हो तो अष्ट रात्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है ।।222॥
नागवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
षडहं तु तदा गत्वा पूर्वत: प्रतिदृश्यते ॥223॥ जब नागवीथि को पुनः प्राप्त होकर शुक्र अस्त हो तो 6 दिनों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है ।।223॥
एते प्रवासाः शुक्रस्य पूर्वतः पृष्ठतस्तथा।
यथाशास्त्रं समुद्दिष्टा वर्ण-पाको निबोधत ॥2240 शुक्र के ये प्रवास-अस्त पूर्व और पृष्ठ से यथाशास्त्र प्रतिपादित किये गये हैं । इसके वर्ण का फल निम्न प्रकार ज्ञात करना चाहिए ।।224॥
शको नीलश्च कष्णश्च पीतश्च हरितस्तथा ।
कपिलश्चाग्निवर्णश्च विज्ञेय: स्यात् कदाचन ॥225॥ शुक्र के नील, कृष्ण, पीत, हरित, कपिल-पिंगल वर्ण और अग्नि वर्ण होते है ।।225।।
हेमन्ते शिशिरे रक्त: शुक्रः सूर्यप्रभानुगः ।
पीतो वसन्त-ग्रीष्मे च शुक्ल: स्यान्नित्यसूर्यत: 1226॥ हेमन्त और शिशिर ऋतु में शुक्र का सम वर्ण सूर्य की कान्ति के अनुसार होता है तथा वसन्त और ग्रीष्म में पीत वर्ण एवं नित्य सूर्य की कान्ति से शुक्र का शुल्क वर्ण होता है ।।226॥