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भद्रबाहुसंहिता देवान् प्रवजितान् विप्रांस्तस्माद्राजाऽभिपूजयेत् ।
तदा शाम्यति तत् पापं यथा साधुभिरीरितम् ॥180॥ उत्पात से उत्पन्न हुए दोष की शान्ति के लिए देव, दीक्षित मुनि और ब्राह्मण-व्रती व्यक्तियों की पूजा करनी चाहिए। इससे जिस पाप से उत्पात उत्पन्न होते हैं, वह मुनियों के द्वारा उपदिष्ट होकर शान्त हो जाता है ।।1800
यत्र देशे समुत्पाता दृश्यन्ते भिक्षुभिः क्वचित् ।
ततो देशादतिक्रम्य व्रजेयुरन्यतस्तदा ॥181॥ मुनियों को जिस देश में कहीं भी उत्तात दिखलाई पड़े उस देश को छोड़कर अन्य देश में चला जाना चाहिए ।।18110
सचित्ते सुभिक्षे देशे निरुत्पाते प्रियातिथौ।
विहरन्ति सुखं तत्र भिक्षवो धर्मचारिणः ॥182॥ धन-धान्य से परिपूर्ण, सुभिक्ष युक्त, निरुपद्रव और अतिथि-सत्कार करने वाले देश में धर्माचरण करने वाले साधु सुखपूर्वक विहार करते हैं ।।182।।
इति सकलमुनिजनानन्दमहामुनीश्वरभद्रबाहुविरचिते निमित्तशास्त्रे सकलशुभाशुभव्याख्यानविधान कथने चतुर्दशः परिच्छेदः समाप्तः ।।1411
विवेचन–स्वभाव के विपरीत होना उत्पात है। ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं-दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । देव-प्रतिमाओं द्वारा जिन उत्पातों की सूचना मिलती है, वे दिव्य कहलाते हैं । नक्षत्रों का विचार, उल्का निर्घात, पवन, विद्युत्पात, गन्धर्वपुर एवं इन्द्रधनुपादि अन्तरिक्ष उत्पात हैं। इस भूमि पर चल एवं स्थिर पदार्यों का विपरीत रूप में दिखलायी पड़ना भौम उत्पात है । आचार्य ऋषिपुत्र ने दिव्य उत्पातों का वर्णन करते हए बतलाया है कि तीर्थंकर प्रतिमा का छत्र भंग होना, हाथ-पांव, मस्तक, भामण्डल का भंग होना अशुभसूचक है। जिस देश या नगर में प्रतिमाजी स्थिर या चलित भंग हो जाये तो उस देश या नगर में अशुभ होता है। छत्र भंग होने से प्रशासक या अन्य किसी नेता की मृत्यु, रथ टूटने से राजा का मरण तथा जिस नगर में रथ टूटता है, उस नगर में छः महीने के पश्चात् अशुभ फल की प्राप्ति होती है। नगर में महामारी, चोरी, डकंती या अन्य अशुभ कार्य छ: महीनों के भीतर होता है। भामण्डल के भंग होने से तीसरे या पांचवें महीने में आपत्ति आती है। उस प्रदेश के शासक या शासन परिवार में किसी की मृत्यु होती है । नगर में धन-जन की हानि होती है। प्रतिमा
1. भिक्षुदे।