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भद्रबाहुसंहिता
के बाद हींसने लगें तो चन्द्रग्रह समझना चाहिए ।।। 66।।
शुष्कं काष्ठं तृणं वाऽपि यदा संदंशते हयः ।
हेषन्ते सूर्यमुद्वीक्ष्य तदाऽग्निभयमादिशेत् ॥167॥ सूखे काठ, तिनके आदि खाते हुए घोड़े सूर्य की ओर मुंहकर हींसने लगे तो अग्निभय समझना चाहिए ॥1671
यदा शेवालजले वाऽपि मग्नं कृत्वा मुखं हयाः।
हेषन्ते विकृता यत्र तदाप्यग्निभयं भवेत् ॥168॥ जब घोड़े शेवाल युक्त जल में मुंह डुबाकर हींसें तो उस समय भी अग्निभय समझना चाहिए।।168।।
उल्कासमाना हेषन्ते संदृश्य दशनान् हयाः ।
संग्रामे विजयं क्षेमं भतु : पुष्टि विनिदिशेत् ॥169॥ जब उल्का के समान दांत निकालते हुए घोड़े हींसें तो स्वामी के लिए संग्राम में विजय, क्षेम और पुष्टि का निर्देश करते हैं ।। 169।।
प्रसारयित्वा ग्रीवां च स्तम्भयित्वा च वाजिनाम् ।
हेषन्ते विजयं ब्रूयात्संग्रामे नात्र संशयः ॥170॥ गर्दन को जरा-मा झुकाकर—टेढ़ी करके स्थिर रूप से खड़े होकर जब घोड़े हींसें तो संग्राम में निस्सन्देह विजय की प्राप्ति होती है ।। 170।।
श्रमणा ब्राह्मणा वृद्धा न पूज्यन्ते यथा पुरा।
सप्तमासात् परं यत्र भयमाख्यात्युपस्थितम् ॥171॥ जिस नगर में श्रमण, ब्राह्मण और वृद्धों की पूजा नहीं की जाती है उस नगर में सात महीने के उपरान्त भय उपस्थित होता है ॥171।।
अनाहतानि तर्याणि नर्दन्ति विकतं यदा।
षष्ठे मासे नृपो वध्यः भयानि च तदाऽदिशेत् ॥1720 जब बाजे बिना बजाये ही विकृतघोर शब्द करें तो छठे महीने में राजा का वध होता है और वहाँ भय भी होता है ।।172।।
कृत्तिकासु यदोत्पातो दीप्तायां दिशि दृश्यते।
आग्नेयीं वा समाश्रित्य विपक्षादग्नितो भयम् ॥173॥ यदि पूर्व दिशा में कृत्तिका नक्षत्र में उत्पात दिखलाई पड़े अथवा आग्नेय