________________
चतुर्दशोऽध्यायः
243
यदि शनैश्चर के द्वारा प्रताडित मार्ग में बृहस्पति गमन करे तो सभी मनुष्यों को भय होता है ||120|
राजदीपो निपतते भ्रश्यतेऽधः कदाचन ।
षण्मासात् पंचमासाद्वा नृपमन्यं निवेदयेत् ॥ 121॥
यदि राजा का दीपक अकारण नीचे गिर जाय तो छः महीने या पाँच महीने में अन्य राजा होने का निर्देश समझना चाहिए ||121||
हसन्ति यत्र निर्जीवाः धावन्ति प्रवदन्ति च । जातमात्रस्य तु शिशोः सुमहद्भयमादिशेत् ।। 122।।
जहाँ निर्जीव – जड़ पदार्थ हँसते हों, दौड़ते हों और बातें करते हों वहाँ उत्पन्न हुए समस्त बच्चों को महान् भय का निर्देश समझना चाहिए ।। 122 || निवर्तते यदा छाया परितो वा 'जलाशयान् । प्रदृश्यते च दैत्यानां सुमहद्भय' मादिशेत् ||123||
यदि जलाशय – तालाब, नदी आदि के चारों ओर से छाया लौटती हुई दिखलाई पड़े तो दैत्यों के महान् भय का निर्देश समझना चाहिए ||123।।
अद्वारे द्वारकरणं कृतस्य च विनाशनम् ।
हस्तस्य ग्रहणं वाऽपि तदा ह्य त्पातलक्षणम् ॥124॥
अद्वार में - जहाँ द्वार करने योग्य न हो वहाँ द्वार करना, किये हुए कार्य का विनाश करना और नष्ट वस्तु को ग्रहण करना उत्पात का लक्षण है ||124 | 'यजनोच्छेदनं यस्य ज्वलितांगमथाऽपि वा ।
स्पन्दते वा स्थिरं किंचित् कुलहानि तदाऽऽदिशेत् ||125||
यदि किसी के यजन - पूजा, प्रतिष्ठा, यज्ञादि का स्वयमेव उच्छेद – विनाश हो अथवा अंग प्रज्वलित होते हों अथवा स्थिर वस्तु में चंचलता उत्पन्न हो जाय तो कुलहानि समझनी चाहिए |1125 ||
देवज्ञा भिक्षवः प्राज्ञाः साधवश्च पृथग्विधाः । परित्यजन्ति तं देशं ध्र ुवमन्यत्र शोभनम् ॥ 126 ॥
दैवज्ञ - ज्योतिषियों, भिक्षुओं, मनीषियों और साधुओं को विभिन्न प्रकार के उत्पात होने वाले देश को छोड़कर अन्यत्र निवास करना ही श्रेष्ठ होता 1112611
1. निर्जीव भाषणे हासे जलरोधे प्रधावने मु० । 2. परिग्रस्ता मु० । 3 जलाश्रयात् मु० । 4. लक्षणम् मु० 1 5. यजने छादनं यस्य मु० ।