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चतुर्दशोऽध्यायः
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जब पुष्प में पुष्प निबद्ध हो अर्थात् पुष्प में पुष्प की-सी उत्पत्ति हो अथवा फल में फल निबद्ध हो अर्थात् फल से फल की उत्पत्ति हुई हो तो सर्वत्र वितण्डावाद का प्रचार एवं जनपद का महान् विनाश होता है ।।47।।
चतुःपदानां सर्वेषां मनुजानां यदाऽम्बरे ।
श्रूयते व्याहृतं घोरं तदा मुख्यो विपद्यते ॥48॥ जब आकाश में समस्त पशुओं और मनुष्यों का व्यवहार किया गया घोर शब्द सुनाई पड़े तो मुखिया की मृत्यु होती है अथवा मुखिया विपत्ति को प्राप्त होता है ।।48॥
निर्घात कम्पने भूमौ शुष्कवृक्षप्ररोहणे ।
देशपीडां विजानीयान्मुख्यश्चात्र न जीवति ॥49॥ भूमि के अकारण निर्घातित और कम्पित होने तथा सूखे वृक्ष के पुनः हरे हो जाने से देश को पीड़ा समझनी चाहिए तथा वहाँ के मुखिया की मृत्यु होती
है ॥49॥
यदा भूधरशृंगाणि निपतन्ति महीतले।
तदा राष्ट्रभयं विन्द्यात् भद्रबाहुवचो यथा ॥500 जब अकारण ही पर्वतों की चोटियाँ पृथ्वीतल पर आकर गिर जायें, तब राष्ट्र भय समझना चाहिए, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।।501
वल्मीकस्याशु जनने मनुजस्य निवेशने ।
अरण्यं विशतश्चैव तत्र विद्यान्महद्भयम् ।।51॥ मनुष्यों के निवास स्थान में चींटियाँ जल्दी ही अपना बिल बनायें और नगरों से निकलकर जंगल में प्रवेश करें तो राष्ट्र के लिए महान् भय जानना चाहिए ।।51॥
महापिपीलिकावृन्दं सन्द्रकाभृत्यविप्लुतम् ।
तत्र तत्र च सर्वं तद्राष्ट्रभङ्गस्य चादिशेत् ॥52॥ जहाँ-जहाँ अत्यधिक चींटियां एकत्रित होकर झुण्ड-के-झुण्ड बनाकर भाग रही हों, वहाँ-वहाँ सर्वत्र राष्ट्र भंग का निर्देश समझना चाहिए ।। 52।।
1. शुक्ल मु० । 2. स्थिरां भूमि प्रयातस्य यदा सुद्रवतां व्रजेत् । निमज्जन्ति च चक्राणि तस्य विन्द्यात् महद्भयम् । मु० ।