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भद्रबाहुसंहिता
घटना के छठे महीने में संग्राम होता है और पृथ्वी जल से प्लावित हो जाती है।।41।।
चिरस्थायीनि तोयानि पूर्व यान्ति पय:क्षयम् ।
गच्छन्ति वा प्रतिस्रोत: परचक्रागमस्तदा ॥42॥ चिरस्थायी नदियों का जल जब पूर्ण क्षय हो जाय-सूख जाय अथवा विपरीत धारा प्रवाहित होने लगे तो परशासन का आगमन होता है ॥42।।
वर्धन्ते चापि शीर्यन्ते चलन्ति वा तदाश्रयात् ।
सशोणितानि दृश्यन्ते यत्र तत्र महद्भयम् ॥43॥ जहाँ नदियाँ बढ़ती हों, विशीर्ण होती हों अथवा चलती हों और रक्त युक्त दिखलाई पड़ती हों, वहाँ महान् भय समझना चाहिए ॥43॥
शस्त्रकोषात् प्रधावन्ते नदन्ति विचरन्ति वा।
यदा रुदन्ति दोप्यन्ते संग्रामस्तेषु निर्दिशेत् ॥44॥ जहाँ अस्त्र अपने कोश से बाहर निकलते हों, शब्द करते हों, विचरण करते हों, रोते हों और दीप्त-चमकते हों, वहाँ संग्राम की सूचना समझनी चाहिए ।।441
यानानि वृक्षवेश्मानि धूमायन्ति ज्वलन्ति वा।
अकालजं फलं पुष्पं तत्र मुख्यो विनश्यति ॥45॥ जहां सवारी, वृक्ष और घर धूमायमान–धुआँ युक्त या जलते हुए दिखलाई पड़ें अथवा वृक्षों में असमय में फल, पुष्प उत्पन्न हों, मुख्य-प्रधान का नाश होता है ॥45॥
भवने यदि ध यन्ते गीतवादितनिस्वनाः ।
यस्य तद्भवनं तस्य शारीरं जायते भयम् ॥46॥ जिसके घर में बिना किसी व्यक्ति के द्वारा गाये-बजाये जाने पर भी गीत, वादित्र का शब्द सुनाई पड़ता हो, उसके शारीरिक भय होता है ॥46॥
"पुष्पं पुष्पे निबध्येत फलेन च यदा फलम् । वितथं च तदा विन्द्यात् महज्जनपदक्षयम् ॥47॥
___1. तूर्ण मु० । 2. पुष्पे पुष्पं फले पुष्पं फले वा विफलं यदा । वध्य ते वितथं विन्द्यात्तथा जनपदे भयम् ।। मु०।