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भद्रबाहुसंहिता
ये विदिक्षु विमिश्राश्च विकर्मस्था विजातिषु । प्रतिपुद्गलाश्च येषां तेषामुत्पातजं फलम् ॥20॥
जो विदिशाओं में अलग-अलग हों तथा विजाति - भिन्न-भिन्न जाति के वृक्षों में विकर्मस्थ— जिनके कार्य पृथक्-पृथक् हों वे जनपद के लिए उत्पात सूचक होते हैं । प्रति पुद्गल का तात्पर्य उत्पात से होने वाले फल की सूचना देना 113011
श्वेतो रसो द्विजान् हन्ति रक्तः क्षत्रनृपान् वदेत् I पीतो वैश्यविनाशाय कृष्णः शूद्रनिषूदये ॥31॥
यदि वृक्षों से श्वेत रस का क्षरण हो तो द्विज — ब्राह्मणों का विनाश, लाल रस क्षरित हो तो क्षत्रिय और राजाओं का विनाश, पीला रस क्षरित हो तो वैश्यों का विनाश और कृष्ण - काला रस क्षरित हो तो शूद्रों का विनाश होता
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परचक्रं नृपभयं क्षुधाव्याधिधनक्षयम् ।
एवं लक्षणसंयुक्ताः स्रावाः कुर्युर्महद्भयम् ॥32॥
यदि श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण का मिश्रित रस क्षरित हो तो परशासन और नृपति का भय, क्षुधा, रोग, धन का नाश और महान् भय होता है ॥32॥ कीटदष्टस्य वृक्षस्य व्याधितस्य च यो रसः ।
विवर्ण: स्रवते गन्धं न दोषाय स कल्पते ॥33॥
यदि कीड़ों द्वारा खाये गये रोगी वृक्ष का विकृत और दुर्गन्धित रस क्षरित होता है, तो उनका दोष नहीं माना जाता । अर्थात् रोगी वृक्ष के रस क्षरण का विचार नहीं किया जाता ॥33॥
वृद्धा द्रमा 'स्रवन्त्याशु मरणे पर्युपस्थिताः । ऊर्ध्वाः शुष्का भवन्त्येते तस्मात् तांल्लक्षयेद् बुधः ॥34॥
मरण के लिए उपस्थित - जर्जरित टूटकर गिरने वाले पुराने वृक्ष ही रस का क्षरण करते हैं । ऊपर की ओर ये सूखे होते हैं । अतएव बुद्धिमान् व्यक्तियों को इनका लक्ष्य करना चाहिए ॥34॥
यथा वृद्धो नरः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ।
तथा वृद्धो द्रुमः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ॥35॥
1. विकर्मसु मु० । 2. पुद्गलाश्च तु ये येषां ते तेषां प्रतिपुद्गलाः मु० । 3. राजा मु० । 4. निहन्त्याशु मु० ।