________________
चतुर्दशोऽध्यायः
223
यदात्युष्णं भवेच्छोते शीतमुष्णे तथा ऋतौ ।
तदा तु नवमे मासे दशमे वा भयं भवेत् ॥3॥ यदि शीत ऋतु में अधिक गर्मी पड़े और ग्रीष्म ऋतु में कड़ाके की सर्दी पड़े तो उक्त घटना के नौ महीने या दश महीने के उपरान्त महान् भय होता है ॥3॥
सप्ताहमष्ट रात्रं वा नवरात्रं दशाह्निकम् ।
यदा निपतते वर्ष प्रधानस्य वधाय तत् ॥4॥ यदि वर्षा सात दिन और आठ रात अथवा नौ रात्रि और दश दिन तक हो तो प्रधान राजा या मन्त्री का वध होता है । तात्पर्य यह है कि वर्षा लगातार सात दिन और आठ रात अर्थात् दिन से आरम्भ होकर आठवीं रात में समाप्त हो या नौ रात और दस दिन अर्थात्-रात से आरम्भ होकर दशवें दिन समाप्त हो तो प्रधान का वध होता है ।।4।।
पक्षिणश्च यदा मत्ताः पशवश्च पृथग्विधाः।
विपर्ययेण संसक्ता विन्द्याज्जनपदे भयम् ॥5॥ यदि पक्षी मत्त-पागल और पशु भिन्न स्वभाव के हो जायें तथा विपर्ययविपरीत जाति, गुण, धर्म वालों का संयोग हो अर्थात् पशु-पक्षियों से मिलें,पक्षी पशुओं से अथवा गाय आदि पशु भी भिन्न स्वभाव वालों से संयोग करें तो राष्ट्र में भय- आतंक व्याप्त हो जाता है ।।5।।
आरण्या ग्राममायान्ति वनं गच्छन्ति नागराः । रुदन्ति चाथ जल्पन्ति तदापायाय कल्पते ॥6॥ अष्टादशसु मासेषु तथा सप्तदशसु च।
राजा च म्रियते तत्र भयं रोगश्च जायते ॥7॥ जंगली पशु गांव में आयें और ग्रामीण पशु जंगल को जायें, रुदन करें और शब्द करें तो जनपद के पाप का उदय समझना चाहिए। इस पाप के फल से अठारह महीनों में या सत्रह महीनों में राजा का मरण होता है और उस जनपद में भय एवं रोग आदि उत्पन्न होते हैं। अर्थात् उस जनपद में सभी प्रकार का कष्ट व्याप्त हो जाता है ।।6-70
1. तदारण्याय मु० । 2. अष्टादशस्य मासस्य तथा सप्तदशस्य च ।