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भद्रबाहुसंहिता
कोण की छींक द्वारा गया हुआ व्यक्ति सकुशल लौट आता है। उत्तर की छींक मान-सम्मान दिलाती है, ईशान कोण की छींक समस्त मनोरथों की सिद्धि करती है। पूर्व की छींक मृत्यु और अग्निकोण की दुःख देती है । यह अन्य लोगों की छींक का फल है । अपनी छींक तो सभी कार्यों को नष्ट करने वाली होती है। अतः अपनी छींक का सदा त्याग करना चाहिए। ऊंच स्थान की छींक में जो व्यक्ति यात्रा के लिए जाता है, वह पुनः वापस नहीं लौटता है। नीचे स्थान की छींक विजय देती है।
'बसन्तराज शाकुन' में दशों दिशाओं की अपेक्षा छींक के दस भेद बतलाये हैं। पूर्व दिशा में छींक होने से मृत्यु, अग्निकोण में शोक, दक्षिण में हानि, नैऋत्य में प्रियसंगम, पश्चिम में मिष्ठ आहार, वायव्य में श्रीसम्पदा, उत्तर में कलह, ईशान में धनागम, ऊपर की छींक में संहार और नीचे की छींक में सम्पत्ति की प्राप्ति होती है । आठों दिशाओं में प्रहर-प्रहर के अनुसार छींक का शुभाशुभत्व दिखलाया गया है। छींक फल-बोधक चक्र में देखें ।
चतुर्दशोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पूर्वकर्मविपाकजम् ।
शुभाशुभतथोत्पातं राज्ञो जनपदस्य च ॥1॥ अब राजा और जनपद के पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कार्यों के फल से होने वाले उत्पातों का निरूपण करता हूँ॥1॥
प्रकृतेर्यो विपर्यासः स चोत्पातः प्रकीर्तितः।
दिव्याऽन्तरिक्षभौमाश्च व्यासमेषां निबोधत ॥2॥ प्रकृति के विपर्यास-विपरीत कार्य के होने को उत्पात कहते हैं । ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं-दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । इनका विस्तार से वर्णन अवगत करना चाहिए ।।2।।
1. शुभाऽशुभान् समुत्पातान् मु० । 2. स उत्पात: मु०।