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त्रयोदशोऽध्यायः
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"चिह्न कुर्यात् क्वचिन्नीलं 'मन्त्रिणा सह बध्यते।
म्रियते पुरोहितो वाऽस्य छत्रं वा पथि भज्यते ॥108॥ जिनको यात्राकाल में उपकरण -अस्त्र-शस्त्रों का दर्शन हो, उनका वध होता है । पक्वान्न नीरस और जला हुआ तथा घृत का बर्तन फटा हुआ दिखलाई पड़े तो व्याधि, भय, मरण और पराजय होता है। रथ, अस्त्र-शस्त्र और ध्वजा में जो राजा नील चिह्न अंकित करता है, वह मन्त्री सहित वध को प्राप्त होता है। यदि मार्ग में राजा का छत्र भंग हो तो पुरोहित का मरण होता है ॥106-108॥
जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धवारे प्रयायिनाम्।
अनग्निज्वलनं वा स्यात् सोऽपि राजा विनश्यति ॥109॥ प्रयाण करने वालों के सैन्य-शिविर में यदि नेत्र रोग उत्पन्न हो अथवा बिना अग्नि जलाये ही आग जल जाये तो प्रयाण करने वाले राजा का विनाश होता है।109।।
द्विपदश्चतःपदो वाऽपि सकन्मचति विस्वरः।
बहुशो व्याधितार्ता वा सा सेना विद्रवं व्रजेत् ॥110॥ यदि द्विपद-मनुष्यादि, चतुष्पद-चौपाये आदि एक साथ विकृत शब्द करें तो अधिक व्याधि से पीड़ित होकर सेना उपद्रव को प्राप्त होती है ।।110॥
सेनायास्तु प्रयाताया कलहो यदि जायते।
द्विधा त्रिधा वा सा सेना विनश्यति न संशयः ॥111॥ यदि सेना के प्रयाण के समय कलह हो और सेना दो या तीन भागों में बंट जाये तो निस्सन्देह उसका विनाश होता है ।।111॥
जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धावारे प्रयायिणाम्।
अचिरेणैव कालेन साऽग्निना दह्यते चमूः ॥112॥ ___ यदि प्रयाण करने वाली सेना की आँख में शिविर में ही पीड़ा उत्पन्न हो तो शीघ्र ही अग्नि के द्वारा वह सेना विनाश को प्राप्त होती है ।।112।।
व्याधयश्च प्रयातानामतिशीतं विपर्ययेत्। अत्युष्णं चातिरूक्षं च राज्ञो यात्रा न सिध्यति ॥113॥
1. चित्रं मु० । 2. स च मन्त्री मु० । 3. जायते च क्षुषो व्याधिः स्कन्धावारे प्रयायिनां, यह पंक्ति मुद्रित प्रति में नहीं है ।