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भद्रबाहुसंहिता
अतीत-भूत, वर्तमान और भविष्यत् का परिज्ञान निमित्तों के द्वारा ही किया जा सकता है, अन्य किसी शास्त्र या विद्या के द्वारा नहीं ।। 39॥
स्वर्गप्रीतिफलं प्राहुः सौख्यं धर्मविदो जनाः।
तस्मात् प्रीति: सखा ज्ञेया सर्वस्य जगत: सदा ॥4॥ धर्म के जानकार व्यक्तियों ने प्रेम का फल स्वर्ग और सुख बतलाया है। अतएव समस्त संसार के प्रेम को मित्र जानना चाहिए ।।40॥
स्वर्गेण तादृशा प्रीतिविषयैर्वापि मानुषैः ।
यदेष्टः स्यानिमित्तेन सतां प्रोतिस्तु जायते ॥41॥ मनुष्यों की स्वर्ग से जैसी प्रीति होती है अथवा विषयों में-भोगों में जैसी प्रीति होती है, उस प्रकार निमित्तों से सज्जनों की प्रीति होती है अर्थात् शुभाशुभ को ज्ञात करने के लिए निमित्तों की परम आवश्यकता है, अतः निमित्तों से प्रीति करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है ।।41।।
तस्मात् स्वर्गास्पदं पुण्यं निमित्तं जिनभाषितम्।
पावनं परमं श्रीमत् कामदं च 'प्रमोदकम् ॥42॥ अतएव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा निरूपित निमित्त स्वर्ग के तुल्य पुण्यास्पद, परम पवित्र, इच्छाओं को पूर्ण करने वाले और प्रमोद को देने वाले हैं ॥42॥
रागद्वेषौ च मोहं च वर्जयित्वा निमित्तवित् ।
देवेन्द्रमपि निर्भीको यथाशास्त्रं समादिशेत् ॥43॥ निमित्तज्ञ को राग, द्वेष और मोह का त्याग कर निर्भय होकर शास्त्र के अनुसार इन्द्र को भी यथार्थ बात कह देनी चाहिए ॥43॥
सर्वाण्यपि निमित्तानि अनिमित्तानि सर्वशः।
'नमित्ते पृच्छतो याति निमित्तानि भवन्ति च ॥440 सभी निमित्त और सभी अनिभित्त नैमित्तिक से पूछने पर निमित्त हो जाते हैं । अर्थात् नैमित्तिक व्यक्ति अनिमित्तकों को निमित्त मानकर फलाफल का निर्देश करता है ।।441
यथान्तरिक्षात पतितं यथा भमौ च तिष्ठति। तयांगजनिता चेष्टं निमित्तं फलमात्मकम् ॥45॥
1. यदि स्पष्टा निमित्तेन मु० । 2. प्रवरं म०। 3. वा मु० । 4. प्रसादतः मु० । 5. निमित्तान्यपि मु० । 6 निमित्तं मु० । 7. तु मु० ।