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त्रयोदशोऽध्यायः
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निमित्त तीन प्रकार के हैं-आकाश से पतित, भूमि पर दिखाई देने वाले और शरीर से उत्पन्न चेष्टाएं।।45॥
'पतेन्निम्ने यथाप्यम्भो सेतुबन्धे च तिष्ठति।
'चेतो निम्ने तथा तत्त्वं तद्विद्यादफलात्मकम् ॥46॥ जिस प्रकार जल नीचे की ओर जाता है, पर पुल बाँध देने पर रुक जाता है, उसी प्रकार मानव का मन भी निम्न बातों की ओर जाता है, किन्तु इन बातों को अफलात्मक--फल रहित जानना चाहिए ॥46॥
बहिरंगाश्च जायन्ते अन्तरंगाच्च चिन्तितम् ।
तज्ज्ञ: शुभाऽशुभं ब्रू यान्निमित्तज्ञानकोविदः ॥47॥ अन्तरंग में विचार करने पर ही बहिरंग में विकृति आती है। अतः निमित्त ज्ञान में प्रवीण व्यक्ति को शुभाशुभ निमित्त का वर्णन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि बाह्य प्रकृति में विकार अन्तरंग कारणों से ही होता है, अतः बाह्य निमित्तों में क्रिया वर्णन सत्य सिद्ध होता है ।।47॥
सुनिमित्तेन संयुक्तस्तत्पर: साधुवृत्तयः।
अदीनमनसंकल्पो भव्यादि लक्षयेद् बुधः ॥48॥ सुनिमित्तों को जानकर, साधु आचरण वाला व्यक्ति, मन को दृढ़ करता हुआ, शुभाशुभ फल का निरूपण करे ।।48॥
कुञ्जरस्तु तदा नर्देत् ज्वलमाने हताशने।
स्निग्धदेशे ससम्भ्रान्तो राज्ञां विजयमावहेत् ॥49॥ स्निग्ध देश में यकायक अग्नि प्रज्वलित हो और हाथी गर्जना करें तो राजा की विजय होती है।49॥
एवं हयवषाश्चाऽपि सिंहव्याघ्राश्च सस्वरा: ।
नर्दयन्ति तु "सैन्यानि तदा राजा प्रमर्दति ॥50॥ इसी प्रकार घोड़ा, बैल, सिंह, व्याघ्र स्वरपूर्वक सुन्दर नाद या गर्जन करें तो राजा सेना को कुचलता है ।।500
1. तथैवाम्भो यथा निम्ने सेतुबन्धे च तिष्ठति मु० । 2. चित्ते मु० । 3. तद्वै मु० । 4. विन्द्यात् बन्धफलात्मकम् मु०। 5. बहिरंगादिविषय मन्तरंगाश्च चिन्तितम् म । 6. विधिम् मु०। 7. नदेधूयमाने मु०। 8. स्निग्ध मुच्चं च निर्धान्तं राजा मु० । 9. सुस्वरः मु० । 10. सोम्यानि मु० ।