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त्रयोदशोऽध्यायः
चतुर, श्रेष्ठ नैमित्तिक को प्रार्थना पूर्वक अपने यहाँ नियुक्त करें || 3311
आरोग्यं जीवितं लाभं सुखं मित्राणि सम्पदः । धर्मार्थकाममोक्षाय तदा यात्रा नृपस्य हि ॥34॥
आरोग्य, जीवन, लाभ, सुख, सम्पत्ति, मित्र-मिलाप, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति जिस समय होने का योग हो, उसी समय राजा को यात्रा करनी चाहिए ॥34॥
शय्याssसनं यानयुग्मं हस्त्यश्वं स्त्री-नरं स्थितम् । वस्त्रान्तस्वप्नयोधांश्च यथास्थानं स योक्ष्यति ॥35॥
शुभ-यात्रा से ही शय्या, आसन, सवारी, हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुरुष, वस्त्र, योद्धा आदि यथासमय प्राप्त होते हैं । अर्थात् कुसमय में यात्रा करने से अच्छी वस्तुएँ भी नष्ट हो जाती हैं । अतः समय का प्रभाव सभी वस्तुओं पर पड़ता 113 511
भृत्यामात्या स्त्रियः : पूज्या राज्ञा स्थाप्या: सुलक्षणाः । 'एभिस्तु लक्षणे राजा लक्षणोऽप्यवसीदति ॥36॥
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भृत्य, अमात्य — प्रधानमन्त्री और स्त्रियों का यथोचित सम्मान करके इन्हें राज्य चलाने के लिए राजधानी में स्थापित करना चाहिए। इन उपर्युक्त लक्षणों से युक्त राजा ही लक्ष्य को प्राप्त करता है || 361
तस्माद् देशे च काले च सर्वज्ञानवतां वरम् । सुमनाः पूजयेद् राजा नैमित्तं दिव्यचक्षुषम् ॥37॥
अतएव देश और काल में सभी प्रकार के ज्ञानियों में श्रेष्ठ दिव्य चक्षुधारी नैमित्तिक का सम्मान राजा को प्रसन्न चित्त से करना चाहिए | 37 ॥
न वेदा नापि चांगानि न विद्याश्च पृथक् पृथक् । प्रसाधयन्ति तानर्थान्निमित्तं यत् सुभाषितम् ॥38॥ निमित्तों के द्वारा जितने प्रकार के और जैसे कार्य सफल हो सकते हैं, उस प्रकार के उन कार्यों को न वेद से सिद्ध किया जा सकता है, न वेदांग से और न अन्य किसी भी प्रकार की विद्या से ॥38॥
अतीतं वर्तमानं च भविष्यद्यच्च किंचन । सर्व विज्ञायते येन तज्ज्ञानं नेतरं मतम् ॥39॥
1. एषां कुलक्षणे : मु० ।