________________
180
भद्रबाहुसंहिता
यथान्धः पथिको भ्रष्टः पथि क्लिश्यत्य नायकः । अनैमित्तस्तथा राजा नष्टे श्रयसि क्लिश्यति ॥28॥
जिस प्रकार अन्धा रास्तागीर ले जाने वाले के न रहने से च्युत हो जाने से कष्ट उठाता है उसी प्रकार नैमित्तिक के बिना राजा भी कल्याण के नष्ट होने से कष्ट उठाता है ।28।।
यथा तमसि चक्षुष्मान्न रूपं साधु पश्यति । अनैमित्तस्तथा राजा न श्र ेयः साधु यास्यति ॥29॥
जिस प्रकार नेत्र वाला व्यक्ति भी अन्धकार में अच्छी तरह रूप को नहीं देख सकता है, उसी प्रकार नैमित्तिक से होन राजा भी अच्छी तरह कल्याण को नहीं प्राप्त कर सकता है ॥29॥
यथा वो रथो गन्ता चित्रं भ्यति यथा च्युतम्' । अनैमित्तस्तथा राजा न साधुफलमीहते ॥30॥
जिस प्रकार वक्र — टेढ़े-मेढ़े रथ द्वारा मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति मार्ग से च्युत हो जाता है और अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुंच पाता; उसी प्रकार नैमित्तिक से रहित राजा भी कल्याणमार्ग नहीं प्राप्त कर पाता है ||30|
चतुरंगान्वितो युद्धं कुलालो वर्तिनं यथा ।
अविनष्टं न गृह्णाति वर्जितं सूत्रतन्तुना ॥31॥
जिस प्रकार कुम्हार बर्तन बनाते समय मृत्तिका, चाक, दण्ड आदि उपकरणों के रहने पर भी, बर्तन निकालने वाले धागे के बिना बर्तन बनाने का कार्य सम्यक् प्रकार नहीं कर सकता है, उसी प्रकार चतुरंग सेना से सहित होने पर भी राजा नैमित्तिक के बिना सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है ।।31॥
चतुरंगबलोपेतस्तथा राजा न शक्नुयात् । अविनष्टफलं भोक्तुं नैमित्तेन विर्वाजत: ॥32॥
चतुरंग सेना से युक्त होने पर भी राजा नैमित्तिक से रहित होने पर युद्ध के समग्रफल प्राप्त नहीं कर सकता है ॥32॥
तस्माद्राजा निमित्तज्ञं अष्टांगकुशलं वरम् । विभृयात् प्रथमं प्रीत्याऽभ्यर्थयेत् सर्वसिद्धये ॥33॥
अतएव राजा सभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करने के अष्टांग निमित्त के ज्ञाता,
1. ताव मु० । 2. स्वनम् मृ० 1 3. सेना- मु० ।