________________
त्रयोदशोऽध्यायः
185
यद्याज्यभाजने केशा भस्मास्थीनि पुनः पुनः।
सेनाग्रे हूयमानस्य मरणं तत्र निदिशेत् ॥57॥ यदि सेना के समक्ष हवन के घृतपात्र में केश, भस्म हड्डी पुनः-पुनः गिरती हों तो सेना के मरण का निर्देश करना चाहिए ।।571
आपो होतु: पतेद्धस्तात् पूर्णपात्राणि वा भुवि ।
कालेन स्याद्वधस्तत्र सेनाया नात्र संशयः ॥58॥ यदि होता के हाथ से जल गिर जाये अथवा पूर्ण पात्र पृथ्वी पर गिर जाये तो कुछ समय में सेना का वध होता है, इसमें सन्देह नहीं है ।।58।।
यदा होता तु सेनायाः प्रस्थाने स्खलते मुहुः।
बाधयेद् ब्राह्मणान् भूमौ तदा स्ववधमादिशेत् ॥59॥ जब सेना के प्रस्थान में होता बार-बार स्खलित हो और पृथ्वी पर ब्राह्मणों को बाधा पहुंचाता हो तो अपने वध का निर्देश करता है ।।59।।
धमः 1कणिपगन्धो वा पीतको वा यदा भवेत।
सेनाने हूयमानस्य तदा सेना पराजयः ॥6॥ यदि आमन्त्रित सेना के आगे हवन की अग्नि का धूम मुर्दा जैसी गन्ध वाला हो अथवा धूम पीले वर्ण का हो तो सेना के पराजय की सूचना समझनी चाहिए ।।600
मषको नकुलस्थाने वराहो गच्छतोऽन्तरा।
धामावर्तः पतंगो वा राज्ञो व्यसनमादिशेत् ॥61॥ न्यौला, मषक और शूकर यदि पीछे की ओर आते हुए दिखलाई पड़ें अथवा बायीं ओर पतंग-चिड़िया उड़ती हुई दिखलाई पड़े तो राजा की विपत्ति की सूचना समझनी चाहिए ॥61॥
मक्षिका वा पतंगो वा यद्वाऽप्यन्यः सरीसृपः।
सेनाने निपतेत् किञ्चिद्धयमाने वधं वदेत् ॥62॥ मधुमक्खी, पतंग, सरीसृप-रेंगकर चलने वाला जन्तु, सर्पादि आमन्त्रित सेना के आगे गिरे तो वध होने की सूचना समझनी चाहिए ।।62॥
शुष्कं प्रदह्यते यदा वष्टिश्चाप्यपवर्षति। ज्वाला धूमाभिभूता तु ततः सैन्यो निवर्तते ॥63॥
1. कुणिम मु० । 2. गच्छतेतरात् मु० । 3. वामा- मु० ।