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त्रयोदशोऽध्यायः
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विशाखारोहिणीभानु नक्षत्रैरुत्तरश्च या।
पूर्वाह णे च 'प्रयाता वा सा सेना परिवर्तते ॥95॥ विशाखा और रोहिणी सूर्य के नक्षत्र तथा उत्तरात्रय सूर्य नक्षत्रों के पूर्वाह्न में प्रयाण करने पर सेना लौट आती है ।।95।।
पुष्येण मैत्रयोगेन योऽश्विन्यां च नराधिपः।
पूर्वाह णे विनर्याति वांछितं स समाप्नुयात् ॥96॥ पुष्य, अनुराधा और अश्विनी नक्षत्र में अपराह्नकाल में जो राजा प्रयाण करता है, वह इच्छित कार्य को पूरा कर लेता है अर्थात् उसकी इच्छा पूर्ण हो जाती है ।।96।।
दिवा हस्ते तु रेवत्यां वैष्णवे च न शोभनम्।
प्रयाणं सर्वभूतानां विशेषेण महीपतेः ॥97॥ हस्त नक्षत्र में दिन में तथा रेवती और श्रवण नक्षत्र में प्रयाण करना सभी को अच्छा होता है, किन्तु, राजाओ का प्रयाण विशेष रूप से अच्छा होता है 197॥
होने मुहुर्ते नक्षत्रे तिथौ च करणे तथा।
पाथिवो योऽभिनिर्याति अचिरात् सोऽपि वध्यते ॥98॥ हीन मुहूर्त, नक्षत्र, तिथि और करण में जो राजा अभिनिष्क्रमण करता है, वह शीघ्र ही वध को प्राप्त होता है ।।98॥
यदाप्ययुक्तो मात्रयात्यधिको मारुतस्तदा।
परैस्तद्वध्यते सैन्यं यदि वा न निवर्तते ॥99॥ यदि यात्राकाल में वायु परिमाण से अधिक चले तो सेना को लौट आना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति में सेना नहीं लौटती है तो सेना शत्रुओं के द्वारा वध को प्राप्त होती है ।।99॥
विहारानुत्सवांश्चापि कारयेत् पथि पार्थिवः।
स सिद्धार्थो निवर्तेत भद्रबाहुवचो यथा ॥100॥ यदि राजा मार्ग में विहार और उत्सव करे तो सफल मनोरथ होकर लौटता है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।।100॥
___1. -म्यां तु नक्षत्ररुत्तरैश्च यत् मु० । 2. प्रयातस्य हतसैन्यो निवर्तते मु० । 3. यथामयुक्ति वा राजा मात्रामधिकमूषते मु० । तदा ससैन्यो वध्येत यदि नैव निवर्तते मु० ।