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तृतीयोऽध्यायः
25 जो उल्का मार्ग में गमन करती हुई आस-पास में दूसरी उल्काओं से भिड़ जाय, वह वत्सानुसारिणी (बच्चे की आकारवाली) उल्का कही जाती है और ऐसी उल्का राष्ट्र का नाश सूचित करती है ।।24।।
रक्ता पीता नभस्युल्काश्चेभ-नक्रेण सन्निभाः। अन्येषां हितानां च सत्त्वानां सदृशास्तु याः ॥25॥ उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते निपतन्त्यः सुदारुणा: ।
यासु प्रपतमानासु मृगा विावधमानुषाः ।।26।। आकाश में उत्पन्त होती हुई जो उल्का हाथी और नक (मगर) के आकार तथा निन्दित प्राणियों के आकारवाली होती है, वह जहाँ गिरे वहाँ दारुण अशुभ फल की सूचना करती है और मृगों तथा विविध मनुष्यों को घोर कष्ट देती है ।।25-26॥
शब्द मुञ्चन्ति दीप्तासु दिक्षु चासन्न काम्यया। ऋव्यादाश्चाऽशु दृश्यन्ते या खरा विकृताश्च याः ॥27॥ सधूम्रा या सनिर्घाता उल्कायाभ्रमवाप्नुयुः । सभूमिकम्पा परुषा रजस्विन्योऽपसव्यगा: ॥28॥ ग्रहानादित्यचन्द्रौ च या: स्पशन्ति दहन्ति वा।
परचक्रभयं घोर क्षुधाव्याधिजनझयम् ॥29॥ जो उल्का अपने द्वारा प्रदीप्त दिशाओं में निकट कामना से शब्द करतीगड़गड़ाती हुई मांसभक्षी जीवो के समान शीघ्रता से दिखाई पड़े अथवा जो उल्का रूक्ष विकृतरूप धारण करती हुई धूमवाली, शब्दसहित, अश्व के समान वेगवाली, भूमि को कपाती हुई, कठोर, धूल उड़ाती हुई, बायें मार्ग से गति करती हुई, ग्रहों तथा सूर्य और चन्द्रमा को स्पर्श करती हुई या जलाती हुई दीख पड़े-गिरे तो वह पर चक्र का घोर भय उपस्थित करती है तथा क्षुधा-रोग-अकाल, महामारी और मनुष्यों के नाश होने की सूचना देती है ।।27-29॥
एवं लक्षणसंयुक्ता: कुर्वन्त्युल्का महाभयम्। अष्टापदवदुल्काभिदिशं पश्येद् "यदाऽवृतम् ॥30॥ युगान्त इति विख्यातः1 षडमासेनोपलभ्यते।
पद्मश्रीवृक्षचन्द्रार्कनंद्यावर्तघटोपमाः ॥31॥ 1. श्येनपांगेन मु० । 2-3. स्र यः मु० A. । 4. पतत् आ० । 5. दिक्षुमासन म० । 6. भाषन्ते आ० । 7. उल्काश्चावाप्नुयुः मु० । 8. ससव्य गाः मु. C. 19. नपभयं आ० । 10. दिन आ० । 11. यदावृताम् मु० । 12. विन्द्यात् मु० । 13. भद्रबाहुवचो यथा मु० ।