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भद्रबाहुसंहिता
और अप्रशस्त-अशुभ इस प्रकार दो तरह का होता है ।1।।
ज्येष्ठे। मूलमतिक्रम्य पतन्ति बिन्दवो यदा।
प्रवर्षणं तदा' ज्ञेयं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥2॥ ज्येष्ठ मास में मल नक्षत्र को बिताकर यदि वर्षा हो तो उसके शुभाशुभ का विचार करना चाहिए ।।2।।
आषाढ शुक्लपूर्वासु ग्रीष्मे मासे तु पश्चिमे। 'देव: प्रतिपदायां तु यदा कुर्यात् प्रवर्षणम् ।। चतुःषष्टिमाढकानि तदा वर्षति वासवः।
निष्पद्यन्ते च सस्यानि सर्वाणि निरुपद्रवम् ॥4॥ ग्रीष्म ऋतु में शुल्का प्रतिपाद को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में पश्चिम दिशा से बादल उठकर वर्षा हो तो 64 आढ़क प्रमाण वर्षा होती है और निरुपद्रव-बिना किसी बाधा के सभी प्रकार के अनाज उत्पन्न होते हैं ।।3-4।।
धर्मकामार्थाः वर्तन्ते परचक्र प्रणश्यति।
क्षेमं सुमिक्ष"मारोग्यं दशरात्रं12 त्वपग्रहम् ॥5॥ उक्त प्रकार के प्रवर्षण से धर्म, काम और धन विद्यमान रहते हैं तथा क्षेम, सुभिज्ञ और आरोग्य की वृद्धि होती है और परचक्र-परशासन का भय दूर हो जाता है किन्तु दस दिन के बाद पराजय होती है-अशुभ फल घटित होता है ।।5।।
उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां यदा देवः प्रवर्षति । विज्ञेया द्वादश द्रोणा अतो वर्ष सुभिक्षदम् ॥6॥ तदा निम्नानि वातानि मध्यम वर्षणं भवेत्।
सस्यानां चापि निष्पत्ति: सुभिक्षं क्षेममेव च ॥7॥ जब उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में वर्षा होती है, तब 12 द्रोण प्रमाण जल की वर्षा होती है तथा सुभिक्ष भी होता है । मन्द-मन्द वायु चलता है, मध्यम वर्षा होती है, अनाजों की उत्पत्ति होती है, सुभिक्ष और कल्याण-मंगल होते हैं ॥6-7।।
__I. ज्येष्ठो मु• A D.। 2. पतन्तं मु• B. C. D. । 3. यथा मु० A. B. D. I 4. मेघ: मु. C. D.। 5. प्रतिपादनेह मु. C.। 6. यद्, मु० A., सदा मु० D. I 7. माधवः आ० । 8. धर्मार्थकामा आ० । 9. प्रवर्तन्त मु० A. D.। 10. प्रशयति मु. C. । 11. मुभिनं मु.। 12. दश राजा मु. । 13. उत्तरां मु. C.I 14. विज्ञेयं मु. C.I 15. सुभिक्षकम् मु० A. 1 16. वाप्यानि मु० B.।