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भद्रबाहुसंहिता
पयोष्णी, गोमती तथा विन्ध्य, महेन्द्र और मलयाचल की नदियाँ आदि हैं।
बुध के प्रदेश - सिन्धु और लौहित्य, गंगा, मंदीरका, रथा, सरयू और कौशिकी के प्रान्त के देश तथा चित्रकूट, हिमालय और गोमन्त पर्वत, सौराष्ट्र देश और मथुरा का पूर्व भाग आदि हैं ।
बृहस्पति के प्रदेश - सिन्धु का पूर्वार्द्ध, मथुरा का पश्चिमार्द्ध भाग तथा विराट् और शतद्र, नदी, मत्स्यदेश ( धौलपुर, भरतपुर, जयपुर आदि) का आधा भाग, उदीच्यदेश, अर्जुनायन, सारस्वत, वार्धान, रमट, अम्बष्ठ, पारत, स्र ुघ्न, सौवीर, भरत, साल्व, त्रैगर्त, पौरव और यौधेय हैं ।
शुक्र के प्रदेश - वितस्ता, इरावती और चन्द्रभागा नदी, तक्षशिला, गान्धार, पुष्कलावत, मालवा, उशीनर, शिवि, प्रस्थल, मार्तिकावत, दशार्ण और कैकेय हैं।
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शनि के प्रदेश – वेदस्मृति, विदिशा, कुरुक्षेत्र का समीपवर्ती देश, प्रभास क्षेत्र, पश्चिम देश, सौराष्ट्र, आभीर, शूद्रक देश तथा आनर्त से पुष्कर प्रान्त तक के प्रदेश, आबू और रैवतक पर्वत हैं ।
केतु के प्रदेश - मारवाड़, दुर्गाचलादिक, अवगाण, श्वेत हूणदेश, पल्लव, चोल और चौलक हैं ।
वृष्टिकारक अन्य योग — सूर्य, गुरु और बुध का योग जल की वर्षा करता है । यदि इन्हीं के ग्रहों के साथ मंगल का योग हो जाये तो वायु के साथ जल की वर्षा होती है । गुरु और सूर्य, राहु और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, शनि और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, गुरु और बुध तथा शुक्र और चन्द्रमा इन ग्रहों के योग होने से जल की वर्षा होती है ।
सुभिक्ष- दुर्भिक्ष का परिज्ञान
प्रभवाद् द्विगुणं कृत्वा त्रिभिर्न्यनं च कारयेत् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषं ज्ञेयं शुभाशुभम् ॥ एकं चत्वारि दुर्भिक्षं पंचद्वाभ्यां सुभिक्षकम् । त्रिषष्ठे तु समं ज्ञेयं शून्ये पीडा न संशयः ॥
अर्थात् प्रभवादि क्रम से वर्तमान चालू संवत् की संख्या को दुगुना कर उसमें से तीन घटा के सात का भाग देने से जो शेष रहे, उससे शुभाशुभ फल अवगत करना चाहिए। उदाहरण - साधारण नाम का संवत् चल रहा है । इसकी संख्या प्रभवादि से 44 आती है, अतः इसे दुगुना किया। 44X2= 88, 88–3= 85,85÷7 = 12 ल०, 1 शेष, इसका फल दुर्भिक्ष है । क्योंकि एक और चार शेष में दुर्भिक्ष, पांच और दो शेष में सुभिक्ष, तीन या छः शेष में साधारण और