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चतुर्थोऽध्यायः
नानारूपो यदा दण्ड: परिवेषं प्रमर्दति । नागरास्तत्र 'बध्यन्ते यायिनो नात्र संशयः ॥27॥
यदि अनेक वर्ण वाला दण्ड परिवेष को मर्दन करता हुआ दिखलाई पड़े तो आक्रमणकारियों द्वारा नागरिकों का नाश होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥27॥ त्रिकोटि यदि दृश्येत् परिवेषः कथञ्चन । त्रिभागशस्त्रवध्योऽसाविति निर्ग्रन्थशासने ॥28॥
कदाचित् तीन कोने वाला परिवेष देखने में आवे तो युद्ध में तीन भाग सेना मारी जाती है, ऐसा निर्ग्रन्थ शासन में बतलाया गया है ||28||
चतुरस्रो यदा चापि परिवेषः प्रकाशते । क्षुधया व्याधिभिश्चापि चतुर्भागोऽवशिष्यते ॥29॥
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यदि चार कोने वाला परिवेष दिखलाई दे तो क्षुधा - भूख और रोग से पीड़ित होकर विनाश को प्राप्त हो जाती है, जिससे जन-संख्या चतुर्थांश रह जाती है ॥29॥
परिवेषो रुणद्धि हि । आदित्य' यदि वा सोमं राष्ट्र संकुलतां व्रजेत् ॥30॥
अर्द्धचन्द्रनिकाशस्तु
अर्ध चन्द्राकार परिवेष चन्द्रमा अथवा सूर्य को आच्छादित करे तो देश में व्याकुलता होती है ॥30॥
प्राकाराट्टालिकाप्रख्यः परिवेषो रुणद्धि हि । आदित्यं यदि वा सोमं पुररोधं
निवेदयेत् ॥31॥
यदि कोट और अट्टालिका के सदृश होकर परिवेष सूर्य और चन्द्रमा को अवरुद्ध करे तो नगर में शत्रु के घेरे पड़ जाते हैं ऐसा कहना चाहिए ॥31॥ समन्ताद् बध्यते यस्तु मुच्यते च मुहुर्मुहुः । संग्रामं तत्र जानीयाद् दारुणं पर्युपस्थितम् ॥32॥
सूर्य अथवा चन्द्रमा के चारों ओर परिवेष हो और वह बार-बार होवे और बिखर जाये तो वहाँ पर कलह एवं संग्राम होता है ||32||
1. बाध्यन्ते मु० । 2. त्रिकोणो मु० । 3. विशिष्यते मु० । 4. आदित्ये मु० । 5. सोमे मु० । 6. भयमाख्याति दारुणम् मु० C. I