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तृतीयोऽध्यायः
45 आगे हम रात्रि में होने वाले परिवेपों के लक्षण और फल को कहेंगे; पश्चात दिन में होने वाले परिवेषों के लक्षण और फल का निरूपण करेंगे। क्रमशः उन्हें अवगत करना चाहिए ॥4॥
क्षीरशंखनिभश्चन्द्रे परिवेषो यदा भवेत् ।
तदा क्षेमं सुभिक्षं च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥5॥ चन्द्रमा के इर्द-गिर्द दूध अथवा शंख के सदृश परिवेष हो तो क्षेम-कुशल और सुभिज्ञ होता है तथा राजा की विजय होती है ।।5।।
सपिस्तैलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत्।
न चाऽकृष्टोऽतिमात्रं च महामेघस्तदा भवेत् ॥6॥ यदि घत और तैल के वर्ण का चन्द्रमा का मण्डल हो और वह अत्यन्त श्वेत न होकर किञ्चित् मन्द हो तो अत्यन्त वर्षा होती है ।।6।।
रूप्यपारापताभश्चः परिवेषो यदा भवेत् ।
"महामेघास्तदाभीक्ष्णं' तर्पयन्ति जलैर्महीम् ॥7॥ चाँदी और कबूतर के समान आभा वाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो निरन्तर जल-वर्षा द्वारा पृथ्वी जलप्लावित हो जाती है अर्थात् कई दिनों तक झड़ी लगी रहती है।।7।
इन्द्रायुध सवर्णस्तु परिवेषो यदा भवेत् ।
संग्रामं तत्र जानीयाद् वर्ष चापि जलागमम् ॥8॥ यदि पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रधनुष के समान वर्ण वाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो उस दिशा में संग्राम का होना और जल का बरसना जानना चाहिए ॥8॥
कृष्णे नीले ध्रुवं वर्ष पीते तु व्याधिमादिशेत् ।
12क्षे भस्मनिभे चापि दुर्वृष्टिभयमादिशेत् ॥9॥ काले और नीले वर्ण का चन्द्रमण्डल हो तो निश्चय ही वर्षा होती है। यदि पीले रंग का हो तो व्याधि का प्रकोप होता है। चन्द्रमण्डल के रूक्ष और भस्म सदृश होने पर वर्षा का अभाव रहता है और उससे भय होता है । तात्पर्य
1. परिवेषे आ० । 2. यथा आ० । 3. आकृष्ट मु० । 4. धारा मु० C.5. प्रभावस्तु म. C.। 6. मेघ: A.C. B. मु० । 7. भीक्षं मु. C.8. सुवर्ण आ० । 9. वर्ष आ० । 10. जलागमे आ० । 11. पीतके आ० । 12. मुद्रित C में इसके पूर्व 'नक्षत्रप्रतिमानस्तु महामेषस्तदा भवेत्' यह पाठ भी मिलता है।