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भद्रबाहुसंहिता
जिस मार्ग, वृद्धि, द्वार, आगमन प्रकार और विकार के अनुसार शुभाशुभ रूप उल्कापात हो उसी के समान शुभाशुभ फन अवगत करना चाहिए ।।66।।
तिथिश्च करणं चैव नक्षत्राश्च मुहूर्तत: ।
ग्रहाश्च शकुनं चैव दिशो वर्णा: प्रमाणत: ॥67॥ उल्तापात का शुभाशुभ फल तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त, ग्रह, शकुन, दिशा, वर्ण, प्रमाण-लम्बाई-चौड़ाई पर से बतलाना चाहिए ॥67।।
निमित्तादनुपूर्वाच्च पुरुष: कालतो बलात् ।
प्रभावाच्च गतेश्चैवमुल्काया फलमादिशेत् ॥68॥ निमित्तानुसार क्रमपूर्वक उपर्युक्त प्रकार से निरूपित काल, बल, प्रभाव और गति पर से उल्का के फल को अवगत करना चाहिए ।।68।।
एतावदुक्तमुल्कानां लक्षणं जिनभाषितम् ।
परिवेषान् प्रवक्ष्यामि तान्निबोधत तत्वतः ॥69॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् ने उल्काओं का लक्षण और फल निरूपित किया है, उसी प्रकार यहाँ वर्णित किया गया है। अब परिवेष के सम्बन्ध में वर्णन किया जाता है, उसे यथार्थ रूप से अवगत करना चाहिए ।।69॥
___ इति भद्रबाइसंहितायां (भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र) तृतीयोऽध्यायः ।
विवेचन-उल्कापात का फलादेश संहिता ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक वर्णित है। यहाँ सर्वसाधारण की जानकारी के लिए थोड़ा-सा फलादेश निरूपित किया जाता है। उल्कापात मे व्यक्ति, समाज, देश, राष्ट्र आदि का फलादेश ज्ञात किया जाता है। सर्वप्रथम व्यक्ति के लिए हानि, लाभ, जीवन, मरण, सन्तान-सुख, हर्षविवाद एवं विशेष अवसरों पर घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं का निरूपण किया जाता है । आकाश का निरीक्षण कर टूटते हए ताराओं को देखने से व्यक्ति अपने सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकता है।
रक्त वर्ण की टेढ़ी, टूटी हुई उल्काओं को पतित होते देखने से व्यक्ति को भय, पाँच महीने में परिवार के व्यक्ति की मृत्यु, धन-हानि और दो महीने के बाद किये गये व्यापार में हानि, राज्य से झगड़ा, मुकद्दमा एवं अनेक प्रकार की चिन्ताओं के कारण परेशानी होती है। कृष्ण वर्ण की टूटी हुई, छिन्न-भिन्न
1. शकुनाश्चव मु० । 2. निमित्तादनुपूर्वाश्च, पुरुषो कालतो बलात् मु.। 3. प्रभावाश्च गतिश्चैवमुल्कानां मु० ।