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द्वितीयोऽध्यायः
भौतिकानां शरीराणां स्वर्गात् प्रच्यवतामिह । सम्भवश्चान्तरिक्षे तु तज्ज्ञैरुल्केति संज्ञिता ॥6॥
भौतिक – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भूतों से निष्पन्न शरीरों को धारण किये हुए देव जब स्वर्ग से इस लोक में आते हैं, तब उनके शरीर आकाश में विचित्र ज्योति-रूप को धारण करते हैं; इसी ज्योति का नाम विद्वानों ने उल्का कहा है ।। 6 ।।
तत्र तारा तथा धिष्ण्यं विद्युच्चाशनिभिः सह । उल्का विकारा बोद्धव्या निपतन्ति निमित्ततः ॥7॥
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तारा, धिष्ण्य, विद्य ुत् और अशनि ये सब उल्का के विकार हैं और ये निमित्त पाकर गिरते हैं ॥ 7 ॥
ताराणां च प्रमाणं च ' धिष्ण्यं तद्विगुणं भवेत् । विद्युद्विशालकुटिला रूपतः क्षिप्रकारिणी ॥8॥
तारा का जो प्रमाण है उससे लम्बाई में दूना धिष्ण्य होता है । विद्य ुत् नाम वाली उल्का बड़ी, कुटिल -- टेढ़ी-मेढ़ी और शीघ्रगामिनी होती है ॥ 8 ॥ अशनिश्चऋसंस्थाना दीर्घा भवति रूपतः ।
पौरुषी तु भवेदुल्का प्रपतन्ती विवर्द्धते ॥9॥
अशनि नाम की उल्का चक्राकार होती है । पौरुषी नाम की उल्का स्वभाव से लम्बी होती है तथा गिरते समय बढ़ती जाती है ॥ 9 ॥
चतुर्भागफला तारा विष्ण्यमर्धफलं भवेत् ।
पूजिता: ' पद्मसंस्थाना मांगल्या ताश्च पूजिताः ॥10॥
तारा नाम की उल्का का फल चतुर्थांश होता है, धिष्ण्य संज्ञक उल्का का फल आधा होता है और जो उल्का कमलाकार होती है वह पूजने योग्य तथा मंगलकारी होती है ॥ 10 ॥
पापा: 'घोरफलं दद्युः शिवाश्चापि शिवं फलम् । व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्रं येषां तैः प्रतिपुद्गलाः ॥11॥
1. ते पतन्ति मु० । 2. तारातारा मु० 1 3. तु मु० । 4. क्षिप्रचारिणि मु० । 5. रक्ता पीतास्तु मध्यास्तु श्वेता : स्निग्धास्तु पूजिता: मु० । 6. पापफलं मु० ।