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प्रथमोऽध्यायः
भिक्षु आश्रित देश को भविष्यकाल में पापयुक्त अथवा उपद्रवयुक्त अवगत कर वहाँ से देशान्तर को चले जाते हैं तथा स्वतन्त्रतापूर्वक धन-धान्यादि सम्पन्न देशों में निवास करते हैं । 11 ।।
श्रावका: स्थिरसंकल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना।
नाश्रयेयुः परं तीर्थं यथा सर्वज्ञभाषितम् ॥12॥ श्रावक इस दिव्य निमित्त ज्ञान को पाकर दृढ़संकल्पी होते हैं और सर्वज्ञकथित तीर्थ-धर्म को छोड़कर अन्य तीर्थ का आश्रय नहीं लेते ॥ 12 ।।
सर्वेषामेव सन्वानां दिव्यज्ञानं सुखावहम् ।
भिक्षुकाणां विशेषेण परपिण्डोपजीविनाम् ॥13॥ यह दिव्यज्ञान--अष्टांगनिमित्त ज्ञान सब जीवों को सुख देने वाला है और परपिण्डोपजीवी साधुओं को विशेष रूप से सुख देने वाला है ।। 13 ।।
विस्तीर्ण द्वादशांगं तु भिक्षुवश्चाल्पमेधसः।
भवितारो हि वहवस्तेषां चैवेदमुच्यताम् ॥14॥ द्वादशांग श्रुत तो बहुत विश्रुत है और आगामी काल में भिक्षु अल्पबुद्धि के धारक होंगे, अत: उनके लिए निमित्त शास्त्र का उपदेश कीजिए ।। 14॥
सुखग्राहं लघुग्रन्थं स्पष्टं शिष्यहितावहम् ।
सर्वज्ञभाषितं तथ्यं निमित्तं तु ब्रवीहि न: ॥15॥ जो सरलता से ग्रहण किया जा सके, संक्षिप्त हो, स्पष्ट हो, शिष्यों का हित करने वाला हो, सर्वज्ञ द्वारा भाषित हो और यथार्थ हो, उस निमित्त शास्त्र का हम लोगों के लिए उपदेश कीजिए। 15 ।।
उल्का: समासतो व्यासात् परिवेषांस्तथैव च। विद्युतोऽभ्राणि सन्ध्याश्च मेघान वातान् प्रवणर्षम् ॥16॥ गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पा'तांस्तथैव च। ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्ध च कृत्स्नत: ॥17॥ वातिकं चाथ स्वप्नांश्च मुहूर्ताश्च तिथींस्तथा।
करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥18॥ 1. माश्रयेयु: मु० A.। 2. सदा आ० । 3. जन्तूनाम् मु० । 4. दिव्यं ज्ञानं मु० । 5. भिक्षवः स्वल्पमेधस: मु० । A.I 6. ग्राह्य ब० । 7. यात्रामुत्पातकाम् मु० A. I 8. स्वप्नश्च मुo A.। . निमित्तानि मु० A.। 10. शाकुन पाकमेव च मु० A. I