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भद्रबाहुसंहिता
प्रथमोऽध्यायः
नमस्कृत्य जिनं वीरं सुरासुरनतक्रमम् ।
यस्य ज्ञानाम्बुधेः प्राप्य किञ्चिद् वक्ष्ये निमित्तकम् ॥1॥ जिनके चरणों में सुर और असुर नम्रित हए हैं, ऐसे श्री महावीर स्वामी को नमस्कार कर, उनके ज्ञानरूपी समुद्र के आश्रय से मैं निमित्तों का किञ्चित् वर्णन करता हूँ॥ 1 ॥
मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम्।
नानाजनसमाकोण नानागुणविभूषितम् ॥2॥ मगध देश के नगरों में प्रसिद्ध राजगह नाम का श्रेष्ठ नगर है, जो नाना प्रकार के मनुष्यों से व्याप्त और अनेक गुणों से युक्त है 2 ॥
तत्रास्ति सेनजिद् राजा युक्तो राजगुणैः शुभैः ।
तस्मिन् शैले सुविख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभ: ॥3॥ राजगृह नगरी में राजाओं के उपयुक्त शुभ गुणों से सम्पन्न सेनजित् नाम का राजा है । तथा उस नगरी में (पाँच) पर्वतों में विख्यात पाण्डुगिरि नाम का श्रेष्ठ पर्वत है। 3॥
नानावृक्षसमाकीणों नानाविहगसेवितः।
चतुष्पदैः सरोभिश्च साधुभिश्चोपसेवित: ॥4॥ यह पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है । अनेक पक्षियों का कीडास्थल है।
1. यह श्लोक मुद्रित प्रति में नहीं है । 2 पदाकीर्ण मु० । 3. शुभम् ब० । 4. शोभित: आ०।