________________
जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद
[ ३७ प्रयोगे केषाञ्चिन्मन्दधियां प्रकृतार्था'प्रतिपत्तेर्गम्यमानस्य' विषयस्यापि प्रयोगः, तत्प्रतिपत्त्यर्थत्वादिति 'चेज्जिगीषवः किमु मन्दमतयो न सन्ति ? येन तथा तेषामप्रतिपद्यमानानां प्रतिपत्तये प्रतिज्ञा दिप्रयोगो न स्यात् । 'इति विशेषाभावादेव शास्त्रादौ वादे च प्रतिज्ञादेरभिधानमनभिधानं वाभ्युपगन्तव्यमविशेषेणैव । ननु च प्रतिज्ञायाः प्रयोगेपि हेत्वादिवचनमन्तरेण साध्याप्रसिद्धेळी प्रतिज्ञा हेत्वादिवचनादेव च साध्यप्रसिद्धेनिगमनादिकमकिञ्चित्करमेवेति
कश्चित्सोपि यत्सत्तत्सर्व क्षणिक, यथा घटः, संश्च10 शब्द इति त्रिलक्षणं हेतुमभिधाय12 1यदि समर्थयते, कथमिव “सन्धामतिशेते ? * 16स्वहेतुसमर्थनमन्तरेण तदभिधानेपि
बौद्ध-शास्त्रादि में अजिगीषु-जीतने की इच्छा नहीं रखने वाले भी शिष्यों को समझाया जाता है क्योंकि प्रतिज्ञादि का प्रयोग न करने पर कोई मंदबुद्धि वाले शिष्यों को प्रकृत अर्थ का बोध नहीं भी होगा अतः गम्यमान भी प्रतिज्ञादि का प्रयोग उन मंदबुद्धि शिष्यों को समझाने के लिये किया जाता है।
जैन-पुनः वादकाल में विजीगीषु क्या मंदमति नहीं हो सकते कि जिससे उसी प्रकार अप्रतिपाद्यमान शिष्यों को बोध कराने के लिये प्रतिज्ञा आदि का प्रयोग न किया जावे ? अर्थात् वहाँ भी किया जाना चाहिये । इसमें कोई भी विशेषता न होने से ही शास्त्रादि और वादकाल इन दोनों में समान रूप से ही प्रतिज्ञादि का प्रयोग करना चाहिये अथवा दोनों में ही नहीं करना चाहिये क्योंकि दोनों ही समान हैं।
बौद्ध-प्रतिज्ञा का प्रयोग करने पर भी हेतु और दृष्टांत के प्रयोग के बिना साध्य की सिद्धि नहीं की जा सकती है अतः प्रतिज्ञा व्यर्थ ही है क्योंकि हेतु आदि के प्रयोग से ही साध्य की सिद्धि होती है अतः निगमन आदि अकिञ्चित्कर ही हैं।
जैन-आप बौद्ध भी "जो सत् है वह सभी क्षणिक है जैसे घट और शब्द सत् है इस प्रकार से त्रिलक्षण वाले हेतु को कहकर यदि समर्थन करते हैं (यदि हेतु के समर्थन के अनन्तर साध्य-साधन की व्याप्ति का समर्थन करते हैं) तब वह हेतु किस प्रकार से प्रतिज्ञा का उल्लंघन
1 प्रारब्धार्थपरिज्ञानात् । (दि० प्र०) साध्यार्थम् । (ब्या० प्र०) 2 अर्थाद्गम्यमानस्य प्रतिज्ञादिविषयस्य । 3 तेषां मन्दधियाम्। 4 तर्हि । (दि० प्र०) 5 (जैन:) वादे। 6 यथा शास्त्रादौ मन्दबुद्धिप्रतिपत्त्यर्थं प्रतिज्ञादिप्रयोगः । 7 एवम् । (दि० प्र०) 8 आदिशब्देन दृष्टान्त ग्रहः । १ बौद्धः। 10 उपनयः । (दि० प्र०) 11 पक्षधर्मत्वादि । (ब्या० प्र०) 12 पूर्व धर्मिण्यस्तित्वं प्रतिपाद्य । (ब्या० प्र०) 13 हेतुसमर्थनानन्तरं यदि साध्यसाधनयोर्व्याप्ति समर्थयते तदा। 14 प्रतिज्ञाम् । 15 न स्वीकरोतीत्यर्थः । प्रतिज्ञावद्धेतुरपि व्यर्थो भवतीत्यर्थः। 16 सहेतुसमर्थनम् इति पा० । (ब्या० प्र०) 17 तस्य हेतोः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org