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शेष भंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३५१ विशेषाकि केन प्रमितं स्यात् ? न हि मिथ्याध्यवसायेन तत्त्वव्यवस्थापन, संशयविपर्यासकारिणापि दर्शनेन स्वलक्षणस्य प्रमितत्वप्रसङ्गात् । वस्तुसंस्पर्शाभावाविशेषेपि निर्णयस्य जनकं दर्शनं स्वलक्षणस्य' प्रमाणं, न पुनः संशयादेरिति वदन्नात्मनोनात्मज्ञतामावेदयति । ननु च निर्णयेन’ दर्शनविषयसमारोपस्य व्यवच्छेदात्तज्जनक' दर्शनं प्रमाणं", न तु संशयादेर्जनकं, तेन तदव्यवच्छेदात्, असमारोपितांशे दर्शनस्य प्रामाण्यात् । 'क्वचिदृष्टेपि यज्ज्ञानं 13 सामान्यार्थं विकल्पकम् । असमारोपितान्यांशे तन्मात्रापोहगोचरम् ॥'
द्वारा किसका ज्ञान हुआ कहा जावेगा ? क्योंकि मिथ्या अध्यवसाय से तत्त्व की व्यवस्था नहीं बनती है।
__ अन्यथा संशय और विपर्यय को करने वाले भी निर्विकल्प प्रत्यक्षरूप दर्शन के द्वारा स्वलक्षण के ज्ञान का प्रसंग हो जावेगा । तथा स्वलक्षण दर्शन और मिथ्या अध्यवसाय इन दोनों में वस्तु के संस्पर्श का अभाव समान होने पर भी स्वलक्षण और विकल्प का जनक दर्शन तो प्रमाण है, किन्तु संशयादि का जनक दर्शन प्रमाण नहीं है इस प्रकार से कहते हुये आप बौद्ध अपनी अनात्मज्ञता को ही प्रगट कर रहे हैं।
__ सौगत-निर्णय-विकल्प से दर्शन विषयक (स्वलक्षणविषयक) समारोप का व्यवच्छेद हो जाता है अतएव उस विकल्प को उत्पन्न करने वाला ज्ञान प्रमाण है, किन्तु संशय आदि का जनक दर्शन प्रमाण नहीं है क्योंकि उन संशय आदि के द्वारा दर्शन विषयक समारोप का निराकरण नहीं हो सकता है । एवं असमारोपितोश (जिसमें समारोप का अंश नहीं है ऐसे नील स्वलक्षण) में दर्शन की प्रमाणता है।
श्लोकार्थ-किसी दर्शन के विषय में भी सामान्य है अर्थ जिसका, ऐसा ज्ञान विकल्पक है और असमारोपित अन्यांश में तन्मात्र अपोह के गोचर है अर्थात् अक्षणिक से व्यावृत्त क्षणिकरूप है। एसा कथन हमारे यहाँ पाया जाता है, अतएव उपर्युक्त उलाहना उचित नहीं है।
1 सन्निकर्षः । (दि० प्र०)। अध्यवसायं वदति सौगतः । (ब्या० प्र०) 2 विकल्प:=बसः । (दि० प्र०) 3 अन्यथा । (दि० प्र०) 4 मिथ्याध्यवसायत्वेन वस्तुव्यवस्थापकत्वाभावे । (ब्या० प्र०) 5 विकल्पसंशयदर्शनयोः । (दि० प्र०) 6 स्वलक्षणस्य यदर्शनं तद्विकल्पस्य । (दि० प्र०) 7 जनकं दर्शनं प्रमाणम् । (दि० प्र०) 8 भो बौद्ध ! तवाभिप्राय एवं खलु । (ब्या० प्र०) 9 सौगतो वदति, विकल्पज्ञानेन निर्विकल्पकदर्शनविषये यः संशयविपर्यासादिलक्षणः समारोपः सः व्यवच्छिद्यते अत: निर्णयजनकं प्रमाणं संशयवि पर्यासजनक दर्शनं प्रमाणं न तेन संशयादिना तस्यदर्शनविषयसमारोपस्याविनाशनात् समारोपरहितांशे दर्शनस्य प्रामाण्यं घटते । कारिकार्थः यत्सविकल्पकं ज्ञानं निश्चितेप्यंशे नीलादिरूपे सामर्थ्यमन्यापोहं प्रकाशयति तत् अपोह गोचरमवानिश्चितेन्यांशे क्षणक्षये रूपेऽर्थे प्रमाणं नास्ति । (दि० प्र०) 10 संशयेन समारोपस्याव्यवच्छेदात् । (दि० प्र०) 11 समारोपव्यवच्छेदकनिर्णयजनकदर्शनविषय इत्यर्थः । (दि० प्र०) 12 नीलरूपे । (दि० प्र०) 13 कर्तृ । (ब्या०प्र०)
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