Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 429
________________ ६६० ] अष्टसहस्री [ कारिका १७ [ अन्वयहेतुर्व्यतिरेकेण सहाविनाभावी अस्ति न वास्य विचारः ] सर्वस्य नित्यत्वानित्यत्वादिसाधने हेतौ साधर्म्यस्य व्यतिरेकाविनाभाविनोऽसंभवादयुक्तमुदाहरणमिति चेन्न, तत्रापि तदुभयसद्भावात् । तथा हि । सर्वमित्थमनित्थं वेति प्रतिज्ञायाऽभिप्रेत्य वा प्रमेयत्वादिहेतूपादानेपि' व्यतिरेकोस्त्येव, प्रमेयत्वस्य वस्तुधर्मत्वात् । परिणामी जीवः शब्दादिर्वा नापरिणामीति वा', सर्वं चेतनमचेतनं वा विवादापन्नमित्थमनित्थं वा प्रतिज्ञाप्रयोगवादी प्रतिपाद्यानुरोधतः प्रतिज्ञाय, 1 सौगतप्रतिपाद्याशयतोभिप्रेत्य वा प्रमेयत्वात् सत्त्वाद्वस्तुत्वादर्थक्रियाकारित्वादित्यादिहेतूनामुपादानेपि वादिप्रतिवादिप्रसिद्धेर्थेन्वयवत्खपुष्पादौ साध्यधर्म निवृत्तौ साधनधर्मनिवृत्तिलक्षणो व्यतिरेकोस्त्येव । [ अन्वय हेतु व्यतिरेक के साथ अविनाभावी है या नहीं इस पर विचार ] शंका-नित्यत्व और अनित्यत्व को सिद्ध करने वाले हेतु में सभी साधर्म्य का व्यतिरेक से अविनाभावी होना सम्भव नहीं है अत: यह उदाहरण अयुक्त है। समाधान नहीं केवलान्वयी हेतु में भी साधर्म्य और वैधर्म्य दोनों ही संभव हैं। तथाहि"सभी इस प्रकार से हैं अथवा सभी इस प्रकार से नहीं हैं। इस प्रकार से स्वमत की अपेक्षा से कहकर के अथवा स्वीकार करके, प्रमेयत्व आदि हेतु को ग्रहण करने पर भी व्यतिरेक है ही है, क्योंकि प्रमेयत्व वस्तु का धर्म है। "जीव अथवा शब्दादि परिणामी हैं अथवा ये जीव और शब्दादि अपरिणामी नहीं हैं।" विवादापन्न सभी चेतन "अथवा अचेतन इस प्रकार हैं" अथवा इस प्रकार नहीं हैं इस प्रकार प्रतिज्ञा प्रयोगवादी प्रतिपाद्य-शिष्यों के अनुरोध से प्रतिज्ञा करके, अथवा सौगत के प्रतिपाद्य आशय से स्वीकार करके “प्रमेयत्वात्, सत्वात्, वस्तुत्वात्, अर्थक्रियाकारित्वात्" इत्यादिरूप से हेतुओं को ग्रहण करते हैं। उन हेतुओं के ग्रहण करने पर भी वादी और प्रतिवादी के प्रसिद्ध अर्थ में अन्वय के समान आकाश पुष्प आदि में साध्यधर्म की निवृत्ति होने पर साधनधर्म निवृत्तिलक्षण व्यतिरेक है ही है। अर्थात् “जीव परिणामी है" क्योंकि प्रमेय है । जो जो प्रमेय होता है वह वह परिणामी होता है जैसे घट । जो परिणामी नहीं है वह प्रमेय भी नहीं है यथा आकाशपुष्प । इसमें व्यतिरेक है ही है। 1 वस्तुनः । (ब्या० प्र०) 2 एकत्वानेकत्त्वसत्त्वासत्त्वादि । (दि० प्र०) 3 वैधर्म्य । (दि० प्र०) 4 परिणाम्यपरिणामिवस्तु । इत्थं परिणामि जीवादि वस्त्वनित्यमपरिणामि । (दि० प्र०) 5 अभ्युपगम्य । (दि० प्र०) 6 प्रमेयस्वसत्त्व वस्तुत्वार्थक्रियाकारित्वादि । (दि० प्र०) 7 प्रयोगे ग्रहणे वा । अंगीकारे । (दि० प्र०) 8 प्रमेयत्वस्य व्यतिरेकोस्त्येव । (ब्या० प्र०) 9 वा शब्दो भिन्नप्रक्रमे । (ब्या० प्र०) 10 सौगत एव प्रतिपाद्यः । (ब्या० प्र०) 11 पक्ष मनसि कृत्वा । (ब्या० प्र०) 12 खपुष्पादौ साधनव्यतिरेक श्चेतत् ज्ञानेपि ते प्रमेया ज्ञातव्या इति तेषां प्रमेयत्वं कथमित्याह परः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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