Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 435
________________ ३६६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १७ पदार्थस्य च सर्वस्य सर्वशब्दवाच्यत्वशक्तिनानात्वात् प्रधानगुणभावादभिधानथ्यवहारप्रसिद्धेः । क्वचित्पदार्थेऽनिन्द्रस्वभावेपीन्द्रशब्दवाच्यत्वशक्तिसद्भावाद्वयवहसंकेतविशेषादिन्द्राभिधानप्रत्ययविशेषसिद्धर्वस्तुस्वभावभेदनिबन्धन एव संकेतविशेष इति' न तदभावे भवितुमुत्सहते, यतः' प्रत्ययविशेष: स्यात् । कथमन्यथा खपुष्पवत्खेपि नास्तीति प्रत्ययो न भवेत् ? खवद्वा खपुष्पेप्यस्तीति प्रत्ययः कुतो न स्यात् ? 'तयोरन्यतरत्रोभावपि प्रत्ययौ कुतो न स्याताम् ? संकेतविशेषस्य सर्वथा वस्तुस्वभावभेदानपेक्षस्य संभवात् । प्रतिनियतश्च विधिनियमप्रत्ययविशेषः सकलबाधकविकल: संलक्ष्यते । ततो यावन्ति पररूपाणि प्रत्येक तावन्तस्ततः 'परा किसी पदार्थ में अनिन्द्र स्वभाव के होने पर भी 'इन्द्र' शब्द से वाच्यत्व शक्ति का भी सद्भाव उसमें विद्यमान है और व्यवहर्ता के संकेत विशेष से उसमें “इन्द्र" यह नाम विशेष और ज्ञान विशेष भी सिद्ध है। अर्थात् इन्द्र शब्द की भावरूप इन्द्र में प्रधानरूप से वृत्ति है और स्थापनारूप इन्द्र में गौणरूप से वृत्ति है। अतएव वस्तु के स्वभाव में भेद के निमित्त से ही संकेत विशेष होता है। वस्तु में स्वभाव भेद के न होने पर वह संकेत विशेष भी नहीं हो सकता है, जिससे कि वस्तु में स्वभाव भेद के बिना भी ज्ञान विशेष हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है । अन्यथा–यदि वस्तु स्वभाव भेद निमित्तक संकेत विशेष के बिना भी ज्ञान विशेष हो जावे तब तो आकाश पुष्प के समान आकाश में भी 'नास्ति' यह प्रत्यय-ज्ञान क्यों नहीं हो जावे ? अथवा आकाश के अस्तित्व के समान आकाश पुष्प में भी "अस्ति" इस प्रकार का ज्ञान भी क्यों नहीं हो जावे ? अथवा उन दोनों में से (आकाश और खपुष्प) किसी एक में उन दोनों विधि और प्रतिषेधरूप का ज्ञान भी क्यों नहीं हो जावे? क्योंकि आपके मत में विशेष तो सर्वथा वस्तु स्वभाव के भेद की अपेक्षा को करता ही नहीं है, किन्तु ऐसी बात देखने में नहीं आती है। अतएव प्रत्येक पदार्थ के प्रति प्रतिनियत विधि और निषेध का ज्ञान विशेष सकल बाधाओं से रहित प्रतीति में आ रहा है। अतएव जितने पररूप हैं उन प्रत्येक में उन पररूप से परावृत्तिलक्षण प्रतिक्षण उतने ही स्वभावभेद हैं, ऐसा निश्चित समझना चाहिये। इस प्रकार से स्वलक्षण ही अन्यापोहरूप है, ऐसी व्यवस्था करना कथमपि शक्य नहीं है, क्योंकि वह अन्यापोह संबंध्यंतर अर्थात् संबंधी-आकाश एवं संबंध्यंतरआकाशपुष्प की अपेक्षा रखता है। पूष्प और विषाण आदि सबंध्यंतर स्वलक्षणरूप आकाशादि के स्वरूपभूत-स्वभावरूप ही हों, ऐसा भी नहीं है। वे संबंध्यंतर पररूप ही हैं। अन्यथा उनसे पुष्पादि की व्यावृत्ति बन ही नहीं सकेगी। 1 एकशब्दस्येन्द्रप्रधानभावेन वृत्तिरनिन्द्रे गुणभावेन प्रवृत्तिः। (दि० प्र०) 2 भूतलस्थमनुष्यादिरूपे । प्रतिमादौ । (दि० प्र०) 3 सः । इति अधिको पाठः । (दि० प्र०) वस्तुस्वभावभेदनिबन्धन रहितसंकेतविशेषात् । (ब्या० प्र०) 4 संकेतविशेषात् । (दि० प्र०) 5 खपुष्पयोर्द्वयोर्मध्ये एकत्र खे वा खपुष्पे वा उभौ भावाभावौ द्वौ प्रत्ययो कस्मान्न भवेतां कस्माद्यतः । संकेतविशेष: सर्वथा वस्तुस्वभावभेदमनपेक्ष्येव संभवति । (दि० प्र०) 6 प्रतिपदार्थम् । (ब्या० प्र०) 7 भिन्न । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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