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अष्टसहस्री
[ कारिका २२
धर्मे' धर्मेन्य एवार्थों धर्मिणोनन्तधर्मणः ।
अंगित्वेन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदंगता ॥२२॥ धर्मी तावदनन्तधर्मा जीवादिः, प्रमेयत्वान्यथानुपपत्तेः । ननु च धर्मेण व्यभिचारः, तस्यानन्तधर्मत्वाभावेपि प्रमेयत्वसिद्धेः । तस्याप्यनन्तधर्मत्वे धमित्वप्रसङ्गान्न धर्मो नाम । तदभावे न धर्मीत्युभयापायः ।।
__ [ बौद्धो ब्रूते प्रमेयत्वहेतुर्व्यभिचारी भवति किंतु जैनाचार्याः समादधते ] प्रमेयत्वस्य च साधनधर्मस्यानन्तधर्मशून्यत्वे तेनैवानेकान्तः । तस्यानन्तधर्मत्वे धर्मित्वेन पक्षान्तःपातित्वान्न हेतुत्वम् । इत्युपालम्भो न श्रेयान्, धर्मस्यैव सर्वथा' कस्यचिद
कारिकार्थ-अनंतधर्मों से विशिष्ट जीवादि एक धर्मी के प्रत्येक धर्म में भिन्न-भिन्न प्रयोजन आदिरूप अर्थ विद्यमान है एवं धर्मों के द्वारा ही धर्मी का कथन होता है अतएव उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष सभी धर्म गौण हो जाते हैं ॥२२॥
अनन्तधर्म वाले जीवादि धर्मी कहलाते हैं क्योंकि प्रमेयत्व की अन्यथानुपपत्ति है।
[ प्रमेयत्व हेतु व्यभिचारी है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं ] बौद्ध—इस हेतु में धर्म के साथ व्यभिचार आता है, क्योंकि धर्म में अनंतधर्मत्व का अभाव होने पर भी प्रमेयत्व सिद्ध है और उस धर्म में भी यदि अनंतधर्म मानोगे, तब तो वह धर्म धर्मी ही बन जावेगा, उसका धर्म यह नाम ही नहीं रहेगा। इस तरह से जब धर्म का अभाव हो जावेगा तब धर्मी भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, पुनः धर्म और धर्मी दोनों का ही अभाव हो जावेगा।
जो प्रमेयत्व साधन धर्म है वह अनंतधर्मों से शून्य है इसलिये उसी प्रमेयत्व हेतु के साथ ही अनेकांत दोष आ जाता है। अर्थात् प्रमेयत्व में अनंतधर्मों का अभाव होने पर भी वह प्रमेय है एवं उस प्रमेय में अनंत धर्म स्वीकार करने पर वह धर्मीरूप से पक्ष के अंतर्भूत होने से हेतुत्व नहीं रहेगा।
जैन-यह आप बौद्धों का उपालंभ श्रेयस्कर नहीं है। सर्वथा धर्मी को छोड़कर धर्म ही असंभव है। इसलिये प्रमेयत्व हेतु में उस धर्म के साथ व्यभिचार का अभाव है। स्वधर्मी की अपेक्षा जो
1 भंगे भंगे । (दि० प्र०) 2 प्रधानत्वे । बसः । (दि० प्र०) 3 धर्मिधर्मनाशः । (दि० प्र०) 4 हेतोः । (दि० प्र०) 5 एव । (ब्या० प्र०) 6 प्रमेयत्वस्यानन्तधर्मात्मकत्वे सति धमित्वं जातं तेन कृत्वा पक्षमध्यपातित्वं घटते अतः कारणात् प्रमेयत्वादित्येतस्य हेतुत्वं न संभवति स्याद्वादी वदतीति दूषणोत्पाद: श्रेयान्नास्ति । (दि० प्र०) 7 स्याद्वाद्याह सत्त्वादिः कश्चिद्विकल्पः सर्वथा धर्मो नास्ति कथञ्चिदधर्मी अपि स्यात् । (दि० प्र०)
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