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स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है । प्रथम परिच्छेद
[ ४०५ प्रमाणान्तरमुक्त्यन्तरं वा निरर्थकं स्यात्, गृहीतग्रहणात् पुनरुक्तेश्च । तथा' हि । साक्षादुपलब्धे शब्दादौ क्षणिकत्वाद्यनुमानं स्वार्थं न स्यात्, धर्मिप्रतिपत्तौ कस्यचिदप्रतिपन्नस्वभावस्य साध्यस्याभावात्, सर्वथा स्वभावातिशयाभावात् । परार्थं चानुमानं वचनात्मक न युज्येत, धर्मिवचनमात्रादेव साध्यनिर्देशसिद्धेः, साधनधर्मोक्तिसिद्धेश्च' । तद्वचने पुनरुक्तताप्रसङ्गः, तस्य स्वभावातिशयाभावादेव ।
विषयकृत धर्मी में) अथवा शब्द से कहे गये में अनुमानादि प्रमाणांतर अथवा उक्त्यंतर-वचनांतर निरर्थक हो जावेंगे, क्योंकि गृहीत को ग्रहण करना और पुनरुक्ति करना ये दोष आते हैं। अर्थात् धर्मी के प्रत्येक धर्म में स्वभावभेद पाया जाता है अतएव प्रत्यक्ष से जाने गये पदार्थ में अनुमान आदि प्रमाण प्रवत्ति करते हैं एवं शब्द से कहे गये में भी भिन्न-भिन्न वचन प्रवृत्त होते हैं। अतएव प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण किये गये को अनुमान ने ग्रहण किया तब गृहीतग्राही दोष आ गया। यह दोष हमारे यहाँ असंभव है क्योंकि अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये में ईहा आदि ज्ञानों की प्रवृत्ति होने से वस्तु में स्वभावभेद होने से उन-उन ज्ञानों का विषय भिन्न-भिन्न ही है, अतः गृहीतग्राही तथैव पुनरुक्ति दोष हमारे यहाँ नहीं आते हैं।
तथाहि-साक्षात्प्रत्यक्ष-श्रावणप्रत्यक्ष से उपलब्ध-शब्दादि विषयों में (बौद्धधर्म की अपेक्षा) क्षणिकत्व सिद्ध करने के लिये “सर्व क्षणिक सत्त्वात्" जो स्वार्थानुमान आपने निश्चित किया है वह नहीं बन सकता है क्योंकि शब्दरूप धर्मी का ज्ञान हो जाने पर वहाँ कोई ऐसा स्वभाव ही नहीं है, जो कि अनुमान से जानने के लिये साध्यरूप किया जावे, कारण बौद्धों की मान्यतानुसार धर्मों में सर्वथा स्वभाव के अतिशय (भेद) का ही अभाव है। वचनात्मक परार्थानुमान भी नहीं बन सकेगा क्योंकि धर्मीवचन के निर्देशमात्र से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है और साधनधर्म का कथन भी सिद्ध हो जाता है, पुनः उस धर्मी का वचन कहने पर पुनरुक्ति दोष का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि शब्दादिधर्मी में स्वभाव के अतिशय का अभाव ही है।
1 प्रत्यक्षलक्षणात्प्रमाणादन्यत्स्वार्थानुमानं प्रमाणान्तरम् । (दि० प्र०) 2 प्रत्यक्षमनुमानं वा निरर्थकं गृहीतग्रहणात् पूनरुक्तत्वात् । मिवचनलक्षणाया उक्तेः सकाशादपरासाध्यसाधनवचनलक्षणपरार्थानुमानरूपाया उक्तेरुक्त्यन्तरम् । (दि० प्र०) 3हे सौगत ! श्रोत्रेन्द्रियादिना शब्दादिर्यदा साक्षाद् गृहीतस्तदा क्षणिकत्वादिः साध्यधर्मोपि गृहीतो भवतु = उपलब्धे गृहीते प्राप्ते शब्दादो। शब्दः पक्षः क्षणिको भवतीति साध्यो धर्मः कतकत्वादित्यनुमानमात्मबोध
क्तं न भवेत् कस्मात् मिणः प्रतिपत्तौ सत्यां कस्यचित्साध्यस्य स्वभावस्याप्रतिपन्नत्वाभावादिति दृष्टपक्षे खण्डनम् । (दि० प्र०) 4 मिणि । (दि० प्र०) 5 आत्मार्थं स्वनिमित्तम् । (दि० प्र०) 6 गृहीतागृहीतरूपस्य । विशेषः । भेदः । (दि० प्र०) 7 इदानीमभिहितपक्षे पर प्रतिबोधनार्थ वचनात्मकमनुमान युक्तं न । शब्द इति धर्मिवचनादेव क्षणिको भवतीति साध्यसिद्धिर्घटते । तथा कृतकत्वादिति साधनसिद्धिश्च सौगत आह। तस्य साध्यसाधने दोषो नास्तीति चेत् । तद्वत्वेन पुनरुक्तता दोषः प्रसजति । परार्थाद्धेतोः । (दि० प्र०) 8 धर्मस्य । (ब्या. प्र.) 9 सर्वं क्षणिकमित्यत्र सत्त्वस्य सद्भावाद्धेतुप्रयोगः पुनरुक्त एव । (ब्या० प्र०)
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