Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 483
________________ ४१४ ] अष्टसहस्री [ कारिका २३ कथंचिदेकत्वेन विरोधाभावात् कथंचिद्विशिष्टप्रतिभासात् । यद्यपि ते विशेषाः परस्परव्यावृत्तपरिणामाः कालादिभेदेपि सद्रूपाविशिष्टाश्चित्रज्ञाननीलादिनिर्भासवत् । यथा हि चित्रप्रतिभासाप्येकव' बुद्धिः", बाह्यचित्रविलक्षलत्वात् । शक्यविवेचनं हि बाह्यचित्रमशक्यविवेचनाश्च बुद्धेर्नीलाद्याकारा इति चित्रज्ञानमशक्यविवेचनं नीलादिनिर्भासभेदेप्येकमिष्यते तथा जीवादिविशेषभेदेप्येक सद्व्यं, कालभेदेपि सद्रूपादशक्यविवेचनत्वात् देशभेदेपि' वा ततस्तेषां विवेचयितुमशक्तेराकारभेदवत्, ततस्तेषां कदाचित्क्वचित्कथंचिदपि विवेचने12 स्वरूपाभावप्रसङ्गात् । सामान्यविशेषसमवायवत्प्रागभावादिवद्वा सद्रूपाद्विवेचनेपि जीवादीनां नाभाव इति चेन्न, तेषामपि सद्विवर्तत्वात्13 सद्रूपविवेचनासिद्धेरन्यथा प्रमेयत्वायोगादवस्तुत्व परिणाम वाले हैं, फिर भी कालादि से भेद के होने पर भी सद्रूप से समान हैं जैसे चित्रज्ञान में नीलादि (१) निर्भास पाया जाता है। जिस प्रकार से चित्र-विचित्र हैं प्रतिभास जिसमें, ऐसा ज्ञान एक ही ज्ञान है, क्योंकि वह बाह्यचित्र से विलक्षण है। बाह्यचित्र का विवेचन करना शक्य है किन्तु चित्रज्ञान के नीलादि आकारों का विवेचन करना अशक्य है। इस प्रकार से अशक्य विवेचनरूप चित्रज्ञान नीलादिनिर्भास भेद के होने पर भी एक ही माना जाता है उसी प्रकार से जीवादि विशेष में भेद के होने पर भी सतरूप द्रव्य एक है । काल भेद के होने पर भी सत्रूप से उसका विवेचन करना अशक्य है, अथवा देश भेद के होने पर भी उस सद्रूप से उसका विवेचन करना अशक्य है। जैसे कि आकार में भेद करना अशक्य है । उस सद्रूप से उनका कदाचित्-किसी काल में, क्वचित्-कहीं पर, कथंचित्-किसी प्रकार से भी विवेचन-पृथक्करण करने पर उस द्रव्य के स्वरूप के अभाव का ही प्रसंग आ जाता है। सौगत-वैशेषिक के मत में सामान्य, विशेष और समवाय इन तीनों में सद्रूप का अभाव है फिर भी उनमें स्वरूप का अभाव नहीं है। अथवा प्रागभाव आदि सत्त्व के अभावरूप ही है, फिर भी वे हैं। उसी प्रकार से उन सामान्य विशेष. समवाय के समान अथवा प्रागभाव आदि के समान सद्रूप से जीवादि पदार्थों का विवेचन करने पर अर्थात् जीवादि पदार्थों को सत्त्वरूप से पृथक् करने पर भी उन जीवादिकों का अभाव नहीं है । 1 सद्रूपतया । (ब्या० प्र०) 2 जीवादिविशेषाणाम् । (ब्या० प्र०) 3 कथञ्चित प्रतिभासमेव भाष्येण भावन्नाह । (ब्या० प्र०) 4 कालदेशाकारकर्भेदेपि यद्यपि जीवादयो विशेषाऽन्योन्यभिन्नस्वभावास्तथापि सत्तास्वरूपादभिन्ना: सन्ति । (दि० प्र०) 5 यथाविचित्र । इति पा० । (दि० प्र०) 6 ज्ञानम् । (दि० प्र०) 7 अनेकः । (ब्या० प्र०) 8 जीवादिविशेषाणाम् । (ब्या० प्र०) 9 एकद्रव्यम् । (ब्या० प्र०) 10 चित्रज्ञानस्य । (ब्या० प्र०) स्वरूप । (दि० प्र०) 11 आकारभेदेन । (ब्या० प्र०) 12 सत्त्वात्पृथक्करणे । सद्रूपात्पृथक्करणे जीवादीनां स्वरूपस्याभाव: प्रसजति = यथा सामान्यविशेषसमवायानां सद्पादिन्नकरणे स्वरूपाभावत्वं प्रसजति । (दि० प्र०) 13 जीवादीनां तस्य सद्रूपस्य विवर्तस्तस्य भावस्तद्विवर्त्तत्वं तस्मात् सत्पर्यायत्वात् । (दि० प्र०) तेषामपि अधिकः पाठः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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