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स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद
[ ४१५ प्रसक्तेः सर्वथा सत्त्वाद्भिन्नस्यासत्त्वनिर्णयात् । ततो जीवादिविशेषाः कालादिभेदेपि स्यादेकं द्रव्यं, सद्रूपाविशिष्टत्वान्नीलादिनिर्भासभेदेपि ज्ञानरूपाविशिष्टत्वादेकचित्रज्ञानवत् । इति प्रथमो भङ्गः (१)।
[ द्वितीय भंग विशेषेण वर्ण यन्त्याचार्याः । तथा जीवादिविशेषाः स्यादनेकत्वमास्कन्दन्ति, भेदेन दर्शनात् संख्यासंख्यावदर्थवत् । न हि संख्यासंख्यावतो.देनादृष्टौ' विशेषणविशेष्यविकल्पः' कुण्डलिवत् क्षीरोदकवदतद्वेदिनि, यतः सौगतस्तयोरभेदं मन्येत । न च भेदैकान्ते तद्वत्तास्ति', 'व्यपदेशनिमित्ता
जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि वे सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव आदि भी सत् की ही पर्यायें हैं। उनको सतरूप से पृथक करना अशक्य है अन्यथा उनमें प्रमेयत्व का अभाव होने से उनको अवस्तुपने का प्रसंग आ जावेगा, क्योंकि सर्वथा-एकांत से सत्त्व से भिन्न-रहित वस्तुओं में असत्रूप का ही निर्णय है।
इसलिये जीवादिपदार्थ विशेष कालादि से भेद के होने पर भी “स्यादेकं द्रव्यम्" कथंचित् एक द्रव्य हैं क्योंकि उनमें सतरूप से समानता है, जैसे एक चित्रज्ञान में नीलादिनिभास-भिन्न-भिन्न प्रतिभास भेद के होने पर भी ज्ञानरूप से उनमें समानता है अत: वह चित्रज्ञान एक है इस प्रकार से प्रथम भंग का वर्णन हुआ।
[ आचार्य द्वितीय भंग का विशेष रीति से वर्णन करते हैं ] उसी प्रकार से जीवादि विशेष "कथंचित अनेकपने" को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि पर्याय की अपेक्षा से भेद देखा जाता है। जैसे संख्या और संख्यावान् पदार्थ में भेद देखा जाता है। संख्या और संख्यावान् पदार्थ में भेद के न दिखने पर विशेषण-विशेष्य विकल्प नहीं हो सकता है, कुण्डली के समान अथवा अतद्वेदी का क्षीरोदक के ज्ञान के समान । अर्थात जैसे कुण्डल और पुरुष में भेद के नहीं दिखने पर विशेषण-विशेष्य भाव नहीं हो सकता है अथवा क्षीरोदक के भेद को नहीं जानने वाला क्षीर और उदक को पृथक्-पृथक् नहीं समझ सकता है। वैसे ही संख्या संख्यावान् पदार्थ में कथंचित् भेद न मानने से यह संख्या विशेषण है और संख्या वाला पदार्थ, विशेष्य है यह ज्ञान भी नहीं हो सकता है कि जिससे सौगत उन दोनों में अभेद को मान सके अर्थात् बौद्ध 'संख्या और संख्यावाले पदार्थ में अभेद है' ऐसा नहीं कह सकता है।
1 वस्तुनः । (दि० प्र०) 2 गुणगुणिनोः । (दि० प्र०) 3 गुणगुणिनोर्भे देऽदर्शने सति विशेषणविशेष्यविकल्पो न घटते == यथा कुण्डलकुण्डलिनोः सर्वथा भेदेऽदर्शने । (दि० प्र०) 4 तर्हि सर्वथा भेदोस्त्विति वदन्तं प्रत्याह । (दि० प्र०) 5 पदार्थः कथंभूत एक इत्यादिप्रकारेण = भवति । (दि० प्र०) 6 गुणगुणिनोः सर्वथा भेदे सति नागुणवता नास्ति । (दि० प्र०) 7 अयं संख्यावानर्थ इति व्यपदेशः । (दि० प्र०)
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