________________
स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद
[ ४१६ प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वलगुणनिकरो"द्भ तसत्कोतिसम्प.
द्विद्यानन्दोदयायाऽनवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभङ्गीविधीद्धा
"भावाद्येकान्तचेतस्तिमिरनिरसनी 'वोऽकलङ्कप्रकाशा ॥१॥
इत्याप्तमीमांसालंकृतौ प्रथमः परिच्छेदः ।
श्लोकार्थ-समंत-सब ओर से, भद्र-कल्याण करने वाली श्री समंतभद्राचार्य की वाणी जो कि अकलंक-निर्दोष प्रकाश से युक्त है अथवा अकलंक देव की अष्ट शती नाम की टीका से अत्यन्त स्फुट प्रकाश को प्राप्त है एवं सूर्य की कान्ति को भी जीतने वाली जो सप्तभंगी विधि उससे इद्धा-दीप्ति को प्राप्त है। मन में स्थित अज्ञान अंधकार का निरसन करने वाली है, इन उपर्युक्त विशेषणों से विशिष्ट श्री स्वामी समंतभद्र की वाणी “आप्तमीमांसा" सदैव अखिलक्लेश का नाश करने के लिये होवे प्रज्ञाधीश से प्रपूज्य जो अखिल गुणों के समूह से उत्पन्न हुई, कीर्ति रूपी सम्पत्ति तथा विद्याकेवलज्ञान और आनन्द-अनंतसुख, इन केवलज्ञान और अनन्त सुख के उदय के लिये होवे । अथवा श्री विद्यानंदाचार्यवर्य के उदय-उन्नति के लिये होवे ।
इस प्रकार से आप्तमीमांसालंकृति में प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ।
1 भा । यसः । (ब्या० प्र०) 2 तासः । का । (ब्या० प्र०) 3 बसः । (ब्या० प्र०) 4 अभावादि । (ब्या० प्र०) 5 युष्माकम् । (ब्या० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org