Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 490
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ४२१ समाधान–बौद्ध के इस पक्ष का खण्डन करते हुये जैनाचार्य कहते हैं कि अनंतधर्मों से युक्त एक जीवादि धर्मी के प्रत्येक धर्मों में भिन्न-भिन्न प्रयोजनादि अर्थ विद्यमान हैं। धर्मों के द्वारा ही धर्मी का कथन होता है, अतः उन धर्मों में से किसी एक के प्रधान करने पर शेष धर्म गौण हो जाते हैं। "अनंतधर्मात्मक जीवादिवस्तु धर्मी कहलाती हैं क्योंकि प्रमेयत्व की अन्यथानुपपत्ति है।" हमारे यहाँ स्वधर्मी की अपेक्षा से जो सत्त्वादि धर्म हैं, वे ही स्वधर्मांतर की अपेक्षा से धर्मी हैं, अत: एक धर्म भी अनंतधर्मात्मक माना गया है, इसमें अनवस्था दोष भी नहीं है, क्योंकि धर्म और धर्मी का स्वभावभेद वलय या अभव्यजीव के संसार के समान अनादि अनंत है, जैसे भ्रमण काल में वलय का जो पूर्वभाग है, वही अपरभाग भी हो जाता है । एवं धर्मी से धर्म सर्वथा भिन्न हों या अभिन्न हों ऐसा नहीं है, किन्तु हमारे यहाँ धर्म और धर्मी कथंचित् भेदाभेदात्मक ही हैं, क्योंकि धर्म-धर्म के प्रति धर्मी में कथंचित् स्वभावभेद विद्यमान है, नय से गृहीत एवं प्रमाण से अगृहीत स्वभावभेद सिद्ध ही है। इस प्रकार से नय के प्रयोग करने में कुशल जनों को एक, अनेक आदि धर्मों में भी यह सप्तभंगी प्रक्रिया घटित कर लेनी चाहिये क्योंकि "सभी वस्त कथंचित एक हैं" कोई कहे कि जीवादि छह द्रव्य अनेक भेद स्वरूप सभी एक कैसे होंगे? सो ठीक नहीं है, यद्यपि वे जीवादि विशेष परस्पर में व्यावत्त परिणाम वाले हैं, कालादि से भी उनमें भेद है, फिर भी शुद्ध सन्मात्र संग्रहनय की अपेक्षा से सद्रूप से सभी एक हैं, देश काल से भेद होने पर भी सतरूप से उन्हें भिन्न करना अशक्य है। "जीवादिवस्तु कथंचित् अनेक हैं" क्योंकि संख्या और संख्यावान् पदार्थ के समान उनमें भेद देखा जाता है। तथाहि सप्तभंगी प्रक्रिया (१) सभी वस्तु कथंचित् एक हैं। (२) सभी वस्तु कथंचित् अनेक हैं। (३) क्रम से अर्पित होने से कथंचित् उभयरूप हैं। (४) कथंचित् सहावक्तव्य हैं। (५) कथंचित् एकावक्तव्य हैं। (६) कथंचित् अनेकावक्तव्य हैं। (७) कथंचित् उभयावक्तव्य हैं। कथंचित् उभयावक्तव्य हैं एवं एकत्व अपने अनेकत्व से अविनाभावी है इत्यादि क्योंकि सप्तभंगी में आरूढ़ हुये बिना कोई भी वस्तु अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती है। अतः हे भगवन् ! आपके स्याद्वादशासन में कुछ भी विरोध नहीं है। इस अध्याय में प्रथमतः अनुमानादि प्रमाणों से सर्वज्ञ की सिद्धि की है। अनंतर अहंत ही सर्वज्ञ हैं इसका समर्थन किया है, बाद में प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के द्वारा परमेष्ट तत्त्व को बाधित सिद्ध किया है । पुन: भावाभावरूप उभयकांत तत्व का निराकरण करते हुए अभाव के स्वरूप का स्पष्टतया वर्णन किया है । पुनः भावादि अनेकांत का समर्थन करते हुए स्याद्वाद के द्वारा परस्पर के विरोध का परिहार किया है। दोहा-श्रुतदेवी मां को नमूं द्रव्य भाव श्रुत हेतु । स्वपर ज्ञान ज्योती जगे मिले भवोदधि सेतु ॥ इस प्रकार श्रीविद्यानंदि आचार्य विरचित अष्टसहस्री ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत कारिकापद्यानुवाद अर्थ, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश से सहित इस स्याद्वाव चितामणि नामक हिन्दी भाषा टीका में यह पहला परिच्छेद पूर्ण हुआ। अष्टसहस्री पूर्वार्ध समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 488 489 490 491 492 493 494