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अष्टसहस्री
[ कारिका २३
स्याद्वाद के अर्थक्रियाकारित्व का सारांश
सभी जीवादिवस्तु विधि और निषध के द्वारा अनवधृत अर्थात् कथंचित् विधि और निषेधरूप से अवस्थित ही अथक्रियाकारी हैं, यदि ऐसा नहीं माना जावे तो वस्तु की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी, क्योंकि सर्वथा निरंशरूप क्षणिक-स्वलक्षण में उत्पादादि असंभव हैं, अत: कोई भी विशेषण उसमें शक्य नहीं है, यदि मानों तो अंशसहित मानना पड़ेगा। कथंचित् सत्रूप वस्तु में ही सामग्री के मिलने पर उसके स्वभाव में अतिशय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । जैसे स्वर्ण परिणमनशाक्तलक्षण प्रतिनियत अन्तःसामग्री तथा स्वर्णकार के व्यापार आदि लक्षण बहिरंग सामग्री के मिल जाने पर केयूर कुण्डलादि पर्याय से उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, अतः सभी वस्तु सदसदात्मक ही हैं, क्योंकि सर्वथा सत्रूप वस्तु भी उत्पन्न नहीं हो सकती है, अन्यथा उसके कारणों की अपेक्षा का कभी भी अभाव नहीं हो सकेगा। 1. इसलिये सदेकांत और असदेकांत में अर्थक्रिया संभव नहीं है। सुनय से अर्पित जो विधि है वह अपने प्रतिषेध का निराकरण नहीं करती है। केवल विधि भंग को कहने पर नास्तित्व आदि अन्य भंग गौण हैं एवं प्रतिषेध भंग के कहने पर अस्तित्वादि भंगांतर गौण हैं प्रतिषेध प्रधान है। इसी हेतु से प्रमाणापित प्रधानरूप अशेष भंगात्मक वस्तुवाक्य-प्रमाणवाक्य से नयवाक्य में अंतर है । अर्थात् प्रमाणवाक्य युगपत् प्रमाणरूप से अर्पित समस्तभंगात्मक वस्तु का विवेचन करता है और नयवाक्य इतर धर्मों का निराकरण न करता हुआ वस्तु के एक ही धर्म का प्रधानतया कथन करता है जैसे विधि भंग में नास्तित्वादि धर्म गौण हैं अस्तित्व प्रधान है आदि ।
शंका-पहले भंग से ही जीवादिवस्तु को जान लेने पर द्वितीयादि भंग अनर्थक हैं । अन्यथा वे नास्तित्व धर्म वस्तु से भिन्न ही सिद्ध होंगे, पुनः भेद में यह धर्मी है, ये इसके धर्म हैं इत्यादि कथन नहीं हो सकेगा, क्योंकि सम्बन्ध का अभाव है। यदि आप जैनाचार्य यों कहें कि सत्त्वादि धर्मों का धर्मी के साथ उपकार्य--उपकारक भाव है तब तो प्रश्न उठते हैं कि धर्मी के द्वारा धर्मों का उपकार है या धर्मों के द्वारा धर्मी का ? प्रथम पक्ष में तो पुनः वह धर्मी एक शक्ति से धर्मों का उपकार करता है या अनेक शक्ति से ? यदि एक शक्ति से मानों तो अपने से अभिन्न एक शक्ति से या अभिन्न अनेक शक्ति से ? अभिन्न एक शक्ति से मानों तो एक सत्त्व लक्षण धर्म के द्वारा नाना धर्मों के निमित्तभूत शक्त्यात्मक धर्मी का ज्ञान हो जाने पर तदुपकार्यरूप सकलधर्मों का ज्ञान हो जावेगा। पुनः धर्म और धर्मी में ऐक्य हो जावेगा, यदि अभिन्न अनेक शक्ति से कहो तो धर्मी धर्मों का उपकार करता है, यह ठीक नहीं है।
तथा यदि मूल के द्वितीय पक्ष को लेवें कि धर्मों के द्वारा धर्मी का उपकार होता है, तो एक शक्ति से या अनेक शक्ति से इत्यादि पूर्ववत् सभी दोष आ जावेंगे। यदि आप जैन धर्मों को उपकार्यउपकारक शक्तियों को धर्मी से भिन्न मानों, तो ये शक्तियाँ उसकी हैं, यह कथन ही असंभव है । यदि शक्तियों द्वारा धर्मी का उपकार मानों, तो वे शक्तियाँ शक्तिमान् से भिन्न हैं या अभिन्न ? इत्यादि दोनों ही पक्षों में पूर्ववत् बाधा आ जावेगी।
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