________________
स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी
प्रथम परिच्छेद
[ जैनाचार्यास्तृतीयादिशेषभंगानपि स्पष्टयंति ]
क्रमापितद्वयात्स्यादुभयम्' (३) । सहावक्तव्यं वक्तुमशक्तेः ( ४ ) । स्यादेकावक्तव्यं', स्वलक्षणस्यैकस्य वक्तुमशक्यत्वात् ( ५ ) । स्यादने का वक्तव्यं तस्यानेकस्यापि वक्तुमशक्तेः ( ६ ) । तत एव स्यादुभयावक्तव्यम् ( ७ ) । इति सप्तभङ्गीप्रक्रियायोजनमतिदेशवचनसामर्थ्यादवसीयते । तत एव चैकत्वमेकधर्मिणि स्वप्रतिषेध्येनानेकत्वेनाविनाभावि विशेषणत्वाद्वैधर्म्याविनाभाविसाधर्म्यवद्धेतौ । अनेकत्वं स्वप्रतिषेध्येनैकत्वेनाविनाभावि विशेषणत्वात् साधर्म्या - विनाभाविवैधर्म्यवद्धेतौ । एवं तदुभयादयो' स्वप्रतिषेध्येनाविनाभाविनो विशेषणत्वाद्विशेष्य
भावार्थ - जैसे एक बिजौरे में वर्ण और रस दोनों रहते हैं उन दोनों में से एक वर्ण का निर्णय हो जाने पर भी रस में संशय हो जाता है, उसी प्रकार से संख्या और संख्या वाले पदार्थ में स्वभावभेद मानने पर तो संशय ही हो जावेगा । यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीवादि पदार्थ में अनेकों पर्यायें पायी जाती हैं, वे कथंचित् अपने-अपने लक्षण आदि से परस्पर में भिन्न हैं, अतः पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से जीवादिवस्तुयें कथंचित् 'अनेकरूप' हैं । इसलिये सभी वस्तु कथंचित् अनेकरूप सिद्ध हैं । इस प्रकार से दूसरा भंग सिद्ध हुआ ।
[ जैनाचार्य तृतीय आदि शेष भंगों का स्पष्टीकरण करते हैं । ] (३) क्रम से दोनों की अर्पणा करने से " वस्तु कथंचित् उभयरूप है ।"
( ४ ) युगपत् कहने की शक्ति न होने से "वस्तु अवक्तव्य है ।"
[ ४१७
(५) वस्तु कथंचित् "एक अवक्तव्य है" क्योंकि एक स्वलक्षण का कहना अशक्य है (वादी अपेक्षा से यह (स्वलक्षण) कथन जैनों ने किया है ।)
(६) वस्तु कथंचित् "अनेक अवक्तव्य है" क्योंकि उस अनेक स्वलक्षण का भी कहना अशक्य है।
(७) उसी प्रकार - क्रम से एकानेक को कहने से एवं युगपत् कहने की शक्ति न होने से ही "वस्तु स्यात् उभय अवक्तव्य है ।"
इस प्रकार से सप्तभंगी प्रक्रिया की योजना कारिका में " योजयेत्" इस अतिदेश वचन की सामर्थ्य से निश्चित होती है और उसी प्रकार से ही एक धर्मी में एकत्व स्वप्रतिषेध्यअनेकत्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि वह विशेषण है, जैसे कि हेतु में साधर्म्य वैधर्म्य के साथ अविनाभावी है ।
वैसे ही अनेकत्व अपने प्रतिषेध्यएकत्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि वह भी विशेषण है जैसे कि हेतु में वैधर्म्य साधर्म्य के साथ अविनाभावी है । वे उभय अवक्तव्य आदि भंग भी स्वप्रतिषेध्य
1 द्रव्यपर्याय । (ब्या० प्र०) 2 संग्रहनयापेक्षया सहयुगपत् द्रव्यपर्यायनयापेक्षया । (ब्या० प्र० ) 3 एकत्र स्थितस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमतिदेशः । ( ब्या० प्र०) 4 अनेकत्वं प्रतिषेद्धयेन वा पा० । ( दि० प्र०) 5 एकानेक प्रमुखाः पञ्चभंगा: । ( दि० प्र० )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org