Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 485
________________ अष्टसहस्री [ कारिका २३ भावात् । संख्यावानर्थ इति व्यपदेशनिमित्तं समवाय इति चेन्न, तस्य कथंचित्तादात्म्यरूपत्वे भेदैकान्तासिद्धेर्वैशेषिकमतविरोधात् । पदार्थान्तरत्वे' संख्यासंख्यावतोः समवाय इति व्यपदेशनिमित्ताभावः । विशेषणविशेष्यभावो व्यपदेशनिमित्तमिति चेन्न, तस्यापि ततो भेदे व्यपदेशनिमित्तान्तरापेक्षणात्पर्यनुयोगानिवृत्तेरनवस्थाप्रसङ्गाच्च । तस्मादयं कथंचिदेव संख्यासंख्यावतोः स्वभावभेदं पश्यति', तद्विशिष्टविकल्पनात्क्वचिन्निर्णयेप्यन्यत्र संशयाद्वर्णरसादिवदिति । तदेवं सर्वं सिद्धं स्यादनेकम् । इति द्वितीयो भङ्गः (२)। भेद एकांत में भी तद्वत्ता (संख्यावान की संख्या) नहीं है, क्योंकि यह संख्या इस पदार्थ की है, ऐसे व्यपदेश के निमित्त का अभाव है। वैशेषिक-अर्थ-पदार्थ संख्यावान् है इस प्रकार के व्यपदेश में हमारे यहाँ समवाय निमित्त पाया जाता है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते। उस समवाय को कथंचित तादात्म्यरूप स्वीकार करने पर तो आपका भेद एकांत सिद्ध ही नहीं हो सकता है । अतः आप वंशेषिकमत में विरोध आ जाता है । यदि समवाय को पदार्थ से भिन्न मानो तो संख्या और संख्यावान् पदार्थ को सर्वथा भिन्न-भिन्न मानने पर "समवाय" इस प्रकार के व्यपदेश के निमित्त का अभाव है ही है। भावार्थ-समवाय के पक्ष में यहाँ दो विकल्प उठाये हैं कि समवाय पदार्थ से अभिन्न है या भिन्न ? यदि कथंचित् अभिन्न मानो तो वैशेषिकमत में विरोध आता है। सर्वथा भिन्न मानों तो यह संख्या और संख्यावान् पदार्थ में समवाय है ऐसा कैसे वह सकेंगे ? वैशेषिक-संख्या और संख्यावान में विशेषण और विशेष्य भाव 'यह संख्या इस संख्यावान् की है' इस व्यपदेश में निमित्त है। __जैन-ऐसा भी नहीं कह सकते उस विशेषण विशेष्यभाव को भी उसने भिन्न मानने पर पुनः एक और भिन्न व्यपदेश निमित्त की अपेक्षा करनी पड़ेगी तब तो वैसे ही प्रश्न होते रहेंगे और अनवस्था का भी प्रसंग आ जावेगा। इसलिये आप सौगत या वैशेषिक कथंचित् ही संख्या और संख्यावान् में स्वभावभेद को देखते हैं, जिस प्रकार से एक ही बिजौरे में रूप और रस दोनों हैं, उसी प्रकार से तद्विशिष्टसंख्यावान् के विकल्प-निश्चय से किसी संख्यावान में या संख्या में निर्णय के हो जाने पर भी अन्यत्र संख्यावान् या संख्या में संशय हो जावेगा। इस प्रकार से सर्वथा भेद भी सिद्ध नहीं होगा। 1 समवायस्य कथञ्चिदैक्यस्य स्वभावत्वे सर्वथा भेदो न सिद्धयति । (दि० प्र०) 2 संख्यासंख्यावतोः। (दि० प्र०) 3 भिन्नत्वे । (दि० प्र०) 4 तस्य विशेषणविशेष्यभावस्य ततो विशेषणविशेष्याभ्यामभेदे सति यौगमतहानि:=भेदे सति तस्यायमिति व्यवहारो न घटते सः भावः संबन्धार्थमन्यव्यपदेश निमित्तमपेक्षते सोप्यन्यं सोप्यन्यमेवमनवस्था स्यात् । (दि० प्र०) 5 स्वसंबन्धिभ्यः समवायसमवायिभ्यः । (दि० प्र०) 6 कथञ्चित इति पा० । भेदनयापेक्षया। न सर्वथा । (दि० प्र०) 7 श्रद्धधाति । (दि० प्र०) 8 संख्यासंख्यावद्विशिष्टकल्पनात् द्वयोरेकतरस्मिन्निर्णीते द्वितीये संशयो घटते यथा रसे निर्णीते वर्णे सन्देहः वर्णे निर्णीते रसे संदेहः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..

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