Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 482
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ४१३ नानाद्रव्यं , प्रतीतिविरोधात्, तत्रैकत्वप्रत्यभिज्ञानाभावात् सर्वत्रकत्वस्य तन्मात्रसाध्यत्वादन्यथातिप्रसङ्गादिति कश्चित् । तं प्रत्येके समादधते ‘सदेव द्रव्यं सद्रव्यम् । तद्विषयो नयः संग्रहः परमः । तदपेक्षया सर्वस्यैकत्ववचनाददोषः' इति । अपरे तु 'सद्व्यमेव नयः', नीयमानत्वाद्धेतोः । तदपेक्षया सर्वमेकं, जीवादीनां षण्णां तद्भेदप्रभेदानां चानन्तानन्तानां 'तत्पर्यायत्वात्' 'एक द्रव्यमनन्तपर्यायम्' इति संक्षेपतस्तत्त्वोपदेशात्, तस्य सर्वत्र सर्वदा विच्छेदानुपलक्षणात् प्रतीतिविरोधाभावादेकत्वप्रत्यभिज्ञानस्यापि’ सदेवेदमित्यबाधितस्य सर्वत्र भावात्, अभावस्यापि तत्पर्यायत्वान्न किञ्चिदूषणमू' इति समाचक्षते । [ जीवादिविशेषाः परस्परभिन्नस्वभावाः कथमेकं द्रव्यमित्यारेकायां समाधानं ] ननु च जीवादयो विशेषाः परस्परं व्यावृत्तविवा:11 कथमेकं द्रव्यं विरोधादिति चेन्न, एकत्व के प्रत्यभिज्ञान का अभाव है। सर्वत्र एकत्व को वह प्रत्यभिज्ञान मात्र से सिद्ध कर देता है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है। समाधान-उनके प्रति कोई जैन विशेष समाधान करते हैं। सत् ही द्रव्य है अतः "सत् द्रव्यम्" ऐसा पाठ है उसको विषय करने वाला नय परम-शुद्ध संग्रहनय है और उसी शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से सभी-छहों द्रव्यों में एकत्व का कथन हो जाता है अतः कोई दोष नहीं है कोई जैनविशेष ऐसा कहते हैं कि “सद्व्यमेव नयः" सद्व्य ही नय है क्योंकि वह स्वद्रव्यों में नीयमान हैप्राप्यमाण है उसकी अपेक्षा से ही सभी जीवादि एक हैं। जीवादि छह द्रव्य और अनंतानंतरूप उनके भेद-प्रभेद उस सद्रव्य की पर्यायें हैं। "एक द्रव्य अनंतपर्यायात्मक है" इस प्रकार संक्षेप से आगम में तत्त्वोपदेश पाया जाता है क्योंकि उसका सर्वत्र सभीद्रव्यों में सर्वदा-सभीकाल में विच्छेद अनुपलक्षित है एवं प्रतीति से विरोध भी नहीं आता है । एकत्वप्रत्यभिज्ञान भी "यह सत् ही है" इस प्रकार से अबाधितरूप सर्वत्र पाया जाता है । अभाव भी तत्पर्यायरूप ही है इसलिये कुछ भी दूषण नहीं आता है। [ जीवादि विशेष परस्पर में भिन्न स्वभाव वाले हैं, पुनः वे एक द्रव्य कैसे हो सकते हैं इस शंका का समाधान ] सौगत-जीवादि विशेष परस्पर में व्यावृत्त विवर्त-भिन्न-भिन्न पर्याय वाले हैं, वे एक द्रव्य कैसे हो सकते हैं क्योंकि विरोध आता है? जैन - ऐसा नहीं कह सकते, कथंचित् एकत्व रूप से मानने पर विरोध का अभाव है। कथंचित् विशिष्ट-भेद प्रतिभास पाया जाता है। यद्यपि वे जीवादि विशेष परस्पर में व्यावृत्त-भिन्न-भिन्न 1 एक सिद्धयत् । (ब्या० प्र०) 2 स द्रव्यं विषयो यस्य नयस्य स तद्विषयः । (दि० प्र०) 3 समाचक्षत इति संबन्धः कार्यः । (दि० प्र०) 4 निश्चीयमानत्वात् । (दि० प्र०) 5 सद्व्यनयापेक्षया । (दि० प्र०) 6 सत्त्व । (दि० प्र०) 7 सम्मतिमाह । (दि० प्र०) 8 सद्रूपस्य जीवादी नित्यमन्वयविनाशादर्शनात् । देशे। पर्यायेषु । (दि० प्र०) 9 प्रतीयमानात् । (दि० प्र०) 10 जीवादौ । (दि० प्र०) 11 अन्योन्यं भिन्नस्वभावाः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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