Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 480
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी हैं । प्रथम परिच्छेद [ ४११ नीलादिविकल्पोत्पत्तेस्ततो नीलादिरूपव्यवस्था मा भूत् । तद्वत्सुखादिव्यवस्थिति रपि कुतः संभाव्येत ? स्वसंवेदनव्यवस्था च तन्निश्चयोत्पत्तेर्दुर्घटव । तदनुत्पत्तौ सुतरां तदव्यवस्था स्वर्गप्रापणशक्त्यादिवद्वेद्याकारविवेकवद्वा । स्वरूपस्य स्वतो गतिरित्यपि तथा निश्चयानुत्पत्तौ न सिध्येब्रह्माद्वैतादिवत् । ततः कुतश्चिन्निश्चयाद्वस्तुस्वभावभेदव्यवस्थायां सत्त्वादिनिश्चयाद्वस्तुनि परमार्थतः सत्त्वादिधर्मभेदव्यवस्थितिरभ्युपगन्तव्या, अन्यथा क्वचिदपि व्यवस्थानासिद्धेः । परमार्थतः सत्त्वादिधर्मव्यवस्थितौ च सत्यां साधीयसी सत्त्वादिसप्तभङ्गी, मुनयार्पितत्वात् । सम्प्रत्येकानेकत्वादिसप्तभङ्गयामपि' तामेव प्रक्रियामतिदिशन्तः सूरयः प्राहुः विकल्प की उत्पत्ति होने से उससे नीलादिरूप व्यवस्था भी मत होवे । पुन. नीलादिरूप व्यवस्था के समान सुखादि की व्यवस्था भी कैसे संभावित हो सकेगो ? अनादिवासना से उसके निश्चय की उत्पत्ति होने से स्वसंवेदनव्यवस्था भी दुर्घट ही है। यदि अनादिवासना के वश से सुखादि की उत्पत्ति नहीं मानो, तब तो जिस प्रकार से स्वर्गप्रापणादि शक्ति का निश्चय न होने से व्यवस्था नहीं है। अथवा वेद्याकार विवेक का निश्चय उत्पन्न न होने से उसकी व्यवस्था नहीं है । तथैव सुतरां उस स्वसंवेदन की अथवा सुखादि की व्यवस्था नहीं हो सकती है। उसी प्रकार से निश्चय की उत्पत्ति न होने से "स्वरूपस्य स्वतो गति:" यह कथन भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, ब्रह्माद्वैतवादी के समान । अतः किसी निश्चय विकल्प से वस्तु में स्वभावभेद की कल्पना करने पर सत्त्वादि का निश्चय हो जाने से वस्त में परमार्थ से सत्त्वादि धर्मभेद व्यवस्था स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा कहीं पर भी वस्तु की व्यवस्था हो नहीं सिद्ध हो सकेगी, और परमार्थ से सत्त्वादि धर्मों की व्यवस्था के हो जाने पर सप्तभंगी सिद्ध ही है, क्योंकि वह सप्तभंगी सुनय से अर्पित है। उत्थानिका-इस समय एकानेकत्वादि सप्तभंगी में भी "स्यादस्ति" इत्यादि उसी प्रक्रिया को घटाते हुये आचार्य कहते हैं 1 तथा सुखदुःखाद्यननुभवेपि तद्वासनावशादेव सुखदुःखादिव्यवस्था इति सौगतवचस्तं प्रत्याह जैन एवं सतीदं सुखं दुःखमिति स्थितिः कुतः संकल्पेन न कुतोपि ! सुखाद्यदर्शनेपि तद्वासनासामर्थ्यादेव सुखादिविकल्पोत्पत्तेः सुखादिव्यवस्था सुखादिविकल्पान्माभूदिति भावः । (दि० प्र०) 2 स्वरूपस्य स्वतोगतेनिश्चयानुत्पत्तावपि स्वसंवेदनव्यवस्था भविष्यतीत्याशंकायामाह । (दि० प्र०) 3 प्रमाणात् । (दि० प्र०) 4 सत्याम् । (दि० प्र०) 5 तदनादिवासनावशादेव तद्विकल्पोत्पत्तौ। (दि० प्र०) 6 नीलादौ । (दि० प्र०) 7 ता । (दि० प्र०) 8 सापेक्षनय । (दि० प्र०) 9नित्यत्वानित्यत्वादि । (दि० प्र०) 10 पूर्वोक्तामेव व्याख्यामतिशयेन प्रतिपादयन्तः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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