Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 478
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ४०६ विविक्तं कृतकमेवाकृतकं, वस्त्वन्तरविविक्तं वस्त्वेवावस्तु व्यवहृतिपथमुन्नीयते इति चेन्न, परमार्थतः सत्त्वादिवस्तुस्वभावभेदप्रसिद्धः, निस्स्वभावभेदवस्तुरूपाभ्युपगमविरोधात् । सता' हि स्वभावानां गुणप्रधानभावः स्यात् पादोत्तमाङ्गवत्" , न पुनरसतां शशाश्वविषाणादीनामविशेषात् । ततः परिकल्पितव्यावृत्त्या धर्मान्तरव्यवस्थापनं परिफल्गुप्रायं, वस्तुस्वभावाभावप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं, न किञ्चिद्वस्तु नामास्ति, "तस्यावस्तुच्यावृत्त्या व्यवहरणात्'4 परिकल्पितवस्तुव्यावृत्त्या चावस्तुव्यवहारसिद्धः । "परस्पराश्रयणान्नैवमिति चेतहि कल्पितासत्त्वादिव्यावृत्त्या सत्त्वादयस्तद्वयावृत्त्या चासत्त्वादिधर्मपरिकल्पनमित्यपि मा भूत्, परस्पराश्रयणाविशेषात् । स्ववासनासामर्थ्यात्सत्त्वेतरादिकल्पनयोरुत्पत्तेस्तद्वयवहारस्यैव” सतरूप स्वभाव में ही गुण-प्रधानभाव हो सकता है पाद और मस्तक के समान, किन्तु असत्रूप शशविषाण, अश्वविषणादि में गुण-प्रधानभाव नहीं है, क्योंकि इनमें कोई भेद नहीं है। इसलिये परिकल्पित व्यावृत्ति से धर्मान्तर-असत्वादि की व्यवस्था करना परिफल्गुप्रायः-व्यर्थ है । अन्यथा वस्तुस्वभाव के अभाव का प्रसंग आ जावेगा। हम ऐसा कह सकते हैं कि वस्तु नाम की कोई चीज नहीं है । वह वस्तु अवस्तु की व्यावृत्ति के द्वारा कही जाती है । एवं परिकल्पितवस्तु की व्यावृत्ति से अवस्तु व्यवहार की सिद्धि है । बौद्ध-परस्पर का आश्रय लेने से इस प्रकार से हम नहीं मानते हैं । जैन--तब तो कल्पित असत्त्वादि की व्यावृत्ति से सत्त्वादि हैं और सत्त्वादि की व्यावृत्ति से असत्त्वादि धर्म होते हैं यह परिकल्पना भी मत होवे, क्योंकि परस्पराश्रय दोष तो इसमें भी समान है। सौगत-अपनी वासना की सामर्थ्य से सत्त्व और असत्त्व आदि कल्पना की उत्पत्ति होने से उन वस्तु और कल्पना का व्यवहार ही परस्पर की अपेक्षा रखता है, इसलिये हमारे यहाँ परस्पराश्रय 1 तर्हि तव सोगतस्यैवं भवतु । स्वरूपाद्यपेक्षया सत्त्वं पररूपाद्यपेक्षयाऽसत्त्वम् । (ब्या० प्र०) 2 स्वभावस्य भेदः स्वभावभेदो निर्गतः स्वभावभेदो यस्मिन् तच्च तद्वस्तुस्वरूपञ्च स्वभावरहितमित्यर्थः । (ब्या० प्र०) 3 अस्तित्वनास्तित्ववादीनाम् । (ब्या० प्र०) 4 यतः । (ब्या० प्र०) 5 शिरसः प्रधानता पादयोरप्रधानता । (ब्या० प्र०) 6 यथा कस्यचिद् गुर्वादेर्यथा पादयोः प्राधान्यं तदा मस्तकस्य गुणभाव: सामान्यस्य कस्यचित्पुंसः । यदा मस्तकस्य प्राधान्यं तदा पादयोर्गुणभाव: । (दि० प्र०) 7 असत्त्वस्य । (ब्या० प्र०) 8 अन्यथा। (ब्या० प्र०) 9 वस्तुत्वलक्षणधमस्य । (ब्या० प्र०) 10 स्याद्वादी वदति सौगतमवलंब्य तमेवाह । तन्मतखण्डनार्थम् । (दि० प्र०) 11 वस्तुनः । (दि० प्र०) 12 अवस्तुव्यावृत्या व्यवहरणं न भवति । (दि० प्र०) 13 अभावेन । (दि० प्र०) 14 न पुनस्तात्त्विकता। (ब्या० प्र०) 15 सौगतः स्याद्वादिनमाह । अन्योन्याश्रयादेवं न भवतीति चेत् तीत्यादि जैनवचः । (दि० प्र०) 16 अवस्तुव्यावत्या वस्तुव्यवहरणं न भवति । (ब्या० प्र०) 17 कल्पनयोरपि कुत इतरेतराश्रयणं न स्यादित्युक्त आह । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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