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स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ]
प्रथम परिच्छेद
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नित्यत्वादावनिश्चयः' ? स्वभावातिशयप्रसङ्गात्, निश्चितानिश्चितयोरेकस्वभावत्वे सर्वथातिप्रसङ्गात् । [ यद्यपि वस्तुनि स्वतः स्वभावभेदो नास्ति तथापि विजातीयभेदात्स्वभावभेदो भवेदिति
बौद्धस्यारेकायां समादधते आचार्याः । सदुत्पत्तिकृतकत्वादेः प्रत्यनीकस्वभावविशेषाभावाद् यावन्ति पररूपाणि तावन्त्यस्ततस्ततो व्यावृत्तयः प्रत्येकमित्येषापि कल्पना मा भूत्। न हि किंचिदसदनुत्पत्तिमदः कृतकादि वा वस्तुभूतमस्ति सौगतप्रसिद्ध पररूपं यतो व्यावृत्तं परमार्थतोऽस्वभावभेदमपि शब्दादिस्व
के सत्त्व में भी भ्रांति माननी होगी। जिस प्रकार शब्द का स्वभाव क्षणिकत्व है, उसी प्रकार सत्त्व भी स्वभाव है अतः उसमें भी भ्रांति का प्रसंग होने से पदार्थ का निश्चय कैसे होगा?
___ यदि आप कहें कि शब्द में सत्त्व का निश्चय मानकर उसके अर्थ का निश्चय कर लेंगे सो ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे शब्द में सत्त्व धर्म का निश्चय मान रहे हो वैसे ही उसमें अनित्यत्व का भी निश्चय मानों, फिर अनित्य का अनिश्चय कहाँ रहा ? अथवा यदि उसमें इसका अनिश्चय मानते हैं, तब तो स्वभावभेद आता ही है। बिना स्वभावभेद के शब्द में एक का निश्चय और एक का अनिश्चय नहीं हो सकता है निश्चय और अनिश्चय ये दो भिन्न-भिन्न स्वभावजन्य धर्म हैं, इनमें पट और पिशाच को त ह भिन्नता है।
[ यद्यपि पदार्थ में स्वत: स्वभावभेद नहीं है, फिर भी विजातीयभेद से स्वभावभेद हो जावेगा
ऐसा बौद्धों द्वारा कहने पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं। ] सत्त्व, उत्पत्तिमत्त्व, कृतकत्वादि हेतुओं में विपरीत स्वभाव विशेष का अभाव होने से जितने पररूप हैं उतनी ही उन-उन से पृथक्-पृथक् प्रत्येक को व्यावृत्तियाँ हैं ऐसी भी कल्पना आप (सौगत) की मत होवे।
अथवा किंचित् भी सौगत प्रसिद्ध असत्, अनुत्पत्तिमत्, अकृतकादि पररूप वस्तुभूत नहीं हैं, कि जिससे (पररूप से) व्यावत्त परमार्थ के स्वभावभेद के बिना भी शब्दादि स्वलक्षण को ।। पत्ति . मत् कृतकत्वादि" स्वभावभेदवाला आप बौद्ध परिकल्पित कर सकें ? अर्थात् नहीं कर सकते।
बौद्ध - दूसरों के यहाँ स्वीकृत होने से यह सत्त्व, कृतकत्त्व आदि स्वभावभेद हमारे यहाँ सिद्ध है।
। चेति अधिकः पाठः । हे सौगत ! शब्दसत्त्वादौ निश्चये जाते सति साध्यलक्षणे तद्धर्मे अनित्यादावनिश्चयः कथं घटते । अपितु न घटते । अथवाऽनिश्चयो मन्यते यदि त्वया । तदा स्वरूपभेदः प्रसजति । (दि० प्र०) 2 भो बौद्ध ! प्रत्यतीकस्वभावविशेषाभावमङ्गीकरोषि चेत् । (ब्या० प्र०) 3 पररूपेभ्यः । (दि० प्र०) 4 स्वभावभेदरहितम् । (ब्या० प्र०) 5 हे सौगत ! भवन्मते पररूपं नास्ति यतः यस्माद्यावृत्तं वस्तु भवति=सत्यतो विचार्यमाणं शब्दादि वस्तु असन्नास्ति असद् ब्यावृत्तं सत्स्वभावयुक्तं कस्मात्परिकल्पते । तथाऽनुत्पत्तिमन्नास्ति किञ्चित् । अनुत्पत्तिमद्वयावत्तमूत्पत्तिमत्कथ परिकल्पते । तथा अकृतकं नास्त्यकृतकव्यावृत्तं कृतकं कथं कल्प्यते । (दि० प्र०)
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