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अष्टसहस्री
[ कारिका २२ "तस्मादृष्टस्य भावस्या दृष्ट एवाखिलो गुणः । भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं संप्रवर्तते।"
इत्येतदप्यनालोचितवचनमेव, दृष्टस्य स्वभावस्य स्वभावातिशयाभावेखिलगुणदर्शनस्य' विरोधात्, धर्मिमात्रेप्यभ्रान्तौ साध्ये स्वभावे भ्रान्त्ययोगात् तद्भ्रान्तौ वा शब्दसत्त्वादावपि भ्रान्तिप्रसक्तेः कुतः साधनं संप्रवर्तेत यतोर्थनिश्चयः स्यात् ? शब्दसत्त्वादौ निश्चये कथम
भावार्थ-जो वस्तु शब्द द्वारा अभिहित हो चुकी है जैसे क्षणिकत्वसिद्धि में जो शिष्यों के लिये "सर्वं क्षणिक सत्त्वात्" रूप परार्थानुमान का प्रयोग किया गया है, उसे वस्तु में स्वभावातिशय के नहीं मानने पर उचित ही नहीं है। कारण शब्दरूप धर्मी के कथन से ही साध्य एवं साधन के निर्देश की सिद्धि हो जाती है, पुनः परार्थानुमानरूप शब्द द्वारा उनके कथन से लाभ क्या? प्रत्युत् वहाँ ग्रहीतग्रहण एवं पुनरुक्त दोष ही आते हैं। यदि इन दोषों को हटाने के लिये ऐसा कहें कि
श्लोकार्थ-जो पदार्थ प्रत्यक्ष से जान लिया जाता है, उसके समस्त गुण भी प्रत्यक्ष से जान लिये जाते हैं फिर भी निरंश शब्दादि में भ्रांति है, अतः उस भ्रांति से निश्चित न हो सकने से उसमें हेतु की प्रवृत्ति होती है।
बौद्धों का यह कथन भी अविचारित ही है, क्योंकि दष्टस्वभावप्रत्यक्षादि के द्वारा जाने गये पदार्थ में स्वभावातिशय का अभाव होने पर अखिलगणों के दर्शन का विरोध है। __धर्मीमात्र में भी अभ्रांत साध्यस्वभाव के होने पर भ्रांति का अभाव है अथवा उस साध्य में भ्रांति के होने पर शब्द के सत्त्व आदि में भी भ्रांति का प्रसंग हो जाने से किस प्रकार से साधन प्रवृत्त हो सकेगा कि जिससे अर्थ-धर्मी का निश्चय हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है और शब्द में सत्त्वादि का निश्चय हो जाने पर अनित्यत्वादि में अनिश्चय कैसे नहीं होगा? ऐसे निश्चय एवं अनिश्चयरूप दोनों के होने पर तो स्वभाव में भेद का प्रसंग प्राप्त हो जाता है। यदि निश्चित और अनिश्चितरूप साधन-साध्य में भी एकस्वभाव मान लेंगे, तब तो सर्वथा ही अतिप्रसंग दोष हो जावेगा, अर्थात् पट और पिशाच में भी एकत्व का प्रसंग हो जावेगा।
भावार्थ-यदि बौद्ध कहे कि प्रत्यक्ष से मात्र धर्मी में हो अभ्रांति ज्ञात होती है, उसके स्वभाव में नहीं, अतः स्वभाव में अभ्रांति सिद्ध करने के लिये अनुमान की आवश्यकता है। यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि स्वभावभेद के अभाव में जब धर्मीमात्र का निश्चय हो जाता है तब उसके साध्यरूप स्वभाव का भी निश्चय हो जावेगा, वहाँ भ्रांति नहीं हो सकती है। यदि वहाँ भ्रांति मानों तब तो शब्द
1 हे सौगत ! तस्मात्कारणानिर्णीतस्य शब्दादे: पक्षस्य सम्पूर्णः साध्यसाधनादिलक्षणो गुणोनिर्णीत एव =सौगत आह हे स्याद्वादिन् साध्यसाधनदर्शनभ्रान्तिरस्ति अखिलो गुणो निश्चीयते न वेति भ्रान्तेः सकाशादनुमानं सम्यक् प्रवर्तते । (दि० प्र०) 2 अखिलगुणसाधनं हेतुः प्रवर्तते ततश्च प्रमाणान्तरमूक्त्यन्तरं न निरर्थक स्यादिति भावः । (ब्या० प्र०) 3 जैन आह । सौगतस्य एतदप्यविचारितवचः स्यात् । भेदः । (दि० प्र०) 4 निश्चीयते नेति श्लोकांश निराकुर्वन्ति शब्दसत्त्वादिति । (दि. प्र०)
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