Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 464
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ३६५ ततस्तद्व्यवस्थापनविरोधात् । निरालम्बनविज्ञानमात्रोपगमेपि संतानान्तरस्वसंतानपूर्वापरक्षणाज्ञानेपि तद्विकल्पोत्पत्तौ कुतस्तद्व्यवस्था ? संवेदनाद्वैतोपगमेपि संविदद्वैताभावेपि 'तद्वासनाबलात्संवित्स्वरूपप्रतिभाससंभवात्कथं स्वरूपस्य स्वतो गतिः सिध्येत् ? सत एव संवित्स्वरूपस्य तथावासनामन्तरेण स्वतो गतौ स्वसंतानपूर्वापरक्षणसंतानान्तरबहिरर्थजन्मादिक्रियाविशेषाणां सतामेव दर्शनाद्विकल्पोत्पत्तिर्युक्ता' इति नोत्पत्त्यादीनां क्रियात्वमसिद्धं यतस्तन्निराधारत्वप्रतिषेधो न सिध्येत् । ततो न प्रागसतोप्युत्पत्तिः संभवति । निरन्व ___जैन-ऐसा नहीं कह सकते अन्यथा नील सुखादि के नहीं दिखने पर भी उस नील सुखादि के विकल्प का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा और यदि निराधार भी विकल्प होने लगेगा तब तो उस नील सुखादि के व्यवस्थापन- अस्तित्व की सिद्धि में विरोध आ जावेगा। इस प्रकार निरालम्बन विज्ञानमात्र की स्वीकृति करने पर भी अनेकों दोष आ जावेगे। संतानांतर-नीलादि और स्वसंतान सुखादि के पूर्वापर क्षण इन दोनों का अज्ञान होने पर भी उन विकल्पों की उत्पत्ति होते रहने पर उस विकल्प की व्यवस्था भी कैसे हो सकेगी ? यदि आप कहें कि विकल्प मत हो किन्तु आदि और अन्त के क्षण से रहित वर्तमान क्षणमात्र ज्ञान की स्वीकृतिरूप संवेदनाद्वैत को स्वीकार करने पर भो एवं संवेदनाद्वैत के अभाव में भी उसकी वासना के बल से संवित्स्वरूप का प्रतिभास संभव है, तब तो स्वरूप का स्वतः ही ज्ञान कैसे सिद्ध हो सकेगा किन्तु वासना के बल से ही सिद्ध होगा। अर्थात् आप बौद्ध स्वरूप का स्वतः ज्ञान होना मानते हैं, यह बात सिद्ध न होकर वासना के बल से ज्ञान होना सिद्ध हो जाता है। पुनः यदि आप कहें कि 'सत्रूप' ही संवित्स्वरूप है अत: अद्वैत की वासना के बिना उस ज्ञान का स्वतः बोध हो जाता है तब तो स्वसंतान के पूर्वापर क्षण एवं संतानांतर बाह्यपदार्थ, इनमें होने वाले उत्पत्ति, विनाश, स्थिति, क्रियाविशेष, 'सत्रूप' ही हैं उनका भी निर्विकल्प प्रत्यक्ष से दर्शन होने पर विकल्प की उत्पत्ति युक्त ही है। इसलिये उत्पत्ति आदि में "क्रियावत्व हेत" असिद्ध नहीं है जिससे कि उस क्रिया में निराधार का विरोध सिद्ध न हो सके । अर्थात् निराधार में क्रिया असंभव है। इसलिये पहले जो सर्वथा असत्रूप है, उसकी उत्पत्ति कथमपि संभव नहीं है। यदि आप यह कहें कि निरन्वय विनाश के न होने पर अर्थात् अन्वयसहित विनाश के होने के पक्ष में पहले जो असत्रूप है उसकी उत्पत्ति हो जाती है, किन्तु आपका यह पक्ष भी क्षेमंकर नहीं है, 1 सवेदनाद्वैतस्य वासना तबलात् । (दि० प्र०) 2 विकल्पात्मकः । (दि० प्र०) 3 विकल्प उत्पद्यते इति युक्तम् । (दि० प्र०) 4 साधनम् । (दि० प्र०) 5 प्रतिषिद्धो इति पा० । यतः कुतः न कुतोपि उत्पत्यादयः साधारा एव न तु निराधाराः। (दि० प्र०) 6 ननु संवित्स्वरूपे विकल्पोत्पत्तिरेव नेष्यतेऽतः कथमुपालंभ इति चेन्न तदनुत्पत्ती सुतरां तदव्यवस्था स्वर्गप्रायेण शक्त्यादिव वेद्याकारविवेकवद्वेति उत्तरकारिकाचरमभागव्याख्याने वक्ष्यमाणोत्तरस्यात्रापि सुलभाद्वक्तुम् । (दि० प्र०) 7 उत्पत्तिविपत्योनिराधारत्वासंभवात । सान्वयापत्तेरसदेकान्तो न संभवति यतः । (ब्या० प्र०) 8 न केवलं प्राक् ततः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494