Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 462
________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ३६३ द्रव्यार्थादेशात् सदेव केयूरादिसंस्थानपर्यायार्थादेशाच्चासदिति तथापरिणमनशक्तिलक्षणायाः प्रतिविशिष्टान्तः सामग्र्याः सुवर्णकारकव्यापारादिलक्षणायाश्च बहिःसामग्र्याः सन्निपाते केयूरादिसंस्थानात्मनोत्पद्यते । ततः सदसदात्मकमेवार्थकृत् । तद्वज्जीवादिवस्तु प्रत्येयम् । नेति चेदित्यादिनकान्तेर्थक्रियां' प्रतिक्षिपति । न तावत्सतः पुनरुत्पत्तिरस्ति', 'तत्कारणापेक्षानुपरमप्रसङ्गात् । न चानुत्पन्नस्य' स्थितिविपत्ती, सर्वथाप्यसत्त्वात्खपुष्पवत् । नाप्यसतः सर्वथोत्पत्त्यादयस्तद्वत् । तस्मान्न सदेकान्तेऽसदेकान्ते चार्थक्रिया संभवति । [ प्रागसतो जन्म भवेत् का बाधा ? इति बौद्धस्याशंकायां प्रत्युत्तरयंत्याचार्याः ] यदि पुनः सामग्र्याः प्रागविद्यमानस्य जन्म स्यात् को दोषः स्यात् ? तन्निरन्वय सुवर्ण सुवर्णत्व आदिरूप से द्रव्याथिकनय की विवक्षा से ‘सत्रूप' ही है और वही सुवर्ण केयूर आदि आकार विशेषरूप पर्यायों की विवक्षा से 'असतरूप' है। इस देत से उन पर्याय शक्तिलक्षण प्रतिनियत अंत:सामग्री-उपादानरूप सवर्ण तथा सनार के व्यापारादिलक्ष सामग्रीरूप सहकारीकारण इन दोनों के मिल जाने पर वह सुवर्ण केयूर, कुंडल आदिरूप पर्याय से उत्पन्न हो जाता है, अतः सुवर्ण सत्-असत रूप सिद्ध है।। इससे यही बात स्पष्ट है कि सदसदात्मक वस्तु ही अर्थकृत् है और उस सुवर्ण के समान ही जीवादिवस्तु सदसदात्मक है ऐसा समझना चाहिये । "नेतिचेत" इत्यादि पद के द्वारा श्री समंतभद्रस्वामी एकांत से अर्थक्रिया का खण्डन करते हैं क्योंकि सर्वथा सतरूप वस्तु को पुन: उत्पत्ति नहीं हो सकती है । अन्यथा-उसकी उत्पत्ति के कारणों की अपेक्षा का कभी उपरम-विराम-अभाव ही नहीं हो सकेगा। एवं जो अनुत्पन्न (असतरूप) है उसमें स्थिति और विनाश संभव नहीं हैं। क्योंकि अनुपपन्न होने से सर्वथा असत्रूप ही है आकाश कमल के समान और उसी प्रकार से असत में भी उत्पाद् आदि सम्भव नहीं हैं। इसीलिये सदेकांत और असदेकांत में अर्थक्रिया संभव नहीं है। [ प्रागसत् का जन्म मानने में क्या बाधा है ? ऐसा बौद्ध का प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं। ] बौद्ध -यदि पुनः सामग्री के पहले अविद्यमान (असत) का जन्म हो जावे तो क्या दोष है ? । पुद्गलः । (ब्या० प्र०) 2 अग्निः । (दि० प्र०) 3 यत एवं ततस्तस्मात्कारणात् । (दि० प्र०) 4 सदादिरूपे । (ब्या० प्र०) सर्वथा सतः सर्वथा असतः आचार्योर्थक्रियां निराकरोति । (दि० प्र०) 5 सर्वथा सतः कार्यस्य । (दि० प्र०) 6 अन्यथा । (दि० प्र०) 7 सर्वथा सत: नित्यस्य वस्तुन उत्पत्ति कार्य नास्ति । तत्तस्य नित्यस्य कारणस्यापेक्षाया विनाशाभावात् । (दि० प्र०) 8 उत्पत्तिर्माभूस्थितिविपत्ती स्यातामित्याशंकायामाह। (ब्या० प्र०) 9 सदनुत्पन्नस्य । (ब्या० प्र०) 10 सदेकान्तेऽर्थक्रिया मा भूदसदेकान्ते सा भविष्यतीत्याशंकायामाहः नान्य सातइति । (दि० प्र०) 11 प्रश्नः । (दि० प्र०) 12 सर्वथाक्षणिकसर्वथानित्यपक्षयोः तयोः क्षणिकनित्ययोरेकान्तस्याभावः प्रसनति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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