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अष्टसहस्री
[ कारिका २१ प्रतिपक्षप्रतिक्षेपप्रकारेण विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितं कथंचिद्विधिप्रतिषेधावस्थितमेवार्थकृत नेति चेन्न, यथा कार्यं (च) बहिरन्तः स्यादुपाधिभिरनन्तविशेषणविशिष्टं', सर्वथा निरंशवस्तुनि सकलविशेषणाव्यवस्थितेः ।
[ कमपि एकं भंगमाश्रित्य वस्त्वर्थक्रियां कुर्यात् का बाधा ? इति प्रश्ने सत्याचार्या उत्तरयति । ] __सत्त्वाद्यन्यतममात्रे एव भङ्ग समवस्थितं कुतो नार्थकृदिति चेदुच्यते, सप्तभङ्गोविधौ स्याद्वारे विधिप्रतिषेधाभ्यां समारूढं' वस्तु सदसदात्मकमर्थक्रियाकारि, कथंचित्सत एव सामग्रीसन्निपातिनः स्वभावातिशयोत्पत्तेः' सुवर्णस्येव केयूरादिसंस्थानम् । सुवर्ण हि सुवर्णत्वादि
इस प्रकार से प्रतिपक्ष-प्रतिषेध करने योग्य सत् आदि एकांत के खण्डन के प्रकार से जीवादिवस्तु विधि और निषेध के द्वारा अनवस्थित रहित एवं कथंचित् विधि और कथंचित् निषेधरूप से अवस्थित ही अर्थक्रियाकारी हैं, यदि ऐसा नहीं मानों तो वस्तु व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। जैसे बाह्यउपाधि-सहकारी कारण एवं अंतरंगउपाधि-उपादान कारणों से एवं अनंतविशेषणों से विशिष्ट होकर ही कार्य बनता है अन्यथा नहीं हो सकता है क्योंकि सर्वथा निरं उत्पाद विनाशादि पर्याय से रहित है उसमें सभी विशेषणों की व्यवस्था नहीं बनती है । अर्थात् यदि उस निरंश वस्तु में भी आप विशेषण स्वीकार करेंगे तब तो उसे अंश सहित ही मानना पड़ेगा, न कि निरंश-क्षणिक स्वलक्षणरूप ।
[ किसी एक भंग का आश्रय लेकर ही वस्तु अर्थक्रिया को करे, क्या बाधा है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य
समाधान करते हैं। ] बौद्ध-सत्त्व आदि किसी एक भंग में ही एकांतरूप से अवस्थित वस्तु अर्थक्रियाकारी क्यों नहीं हो सकती है ?
जैन-सप्तभंगी विधिरूप स्याद्वाद में विधि और प्रतिषेध से युक्त वस्तु सत् असत् स्वभावात्मक होती हुई ही, अर्थक्रियाकारी है क्योंकि कथंचित् सतरूप वस्तु में ही सामग्री का सन्निपात होने पर उसके स्वभाव में अतिशय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, जैसे कि सुवर्ण के केयूरादि (बाजूबन्द आदि) आकार।
1 परपरिकल्पताभ्याम् । (ब्या० प्र०) 2 भा। विधिप्रधानतयेदं प्राक्तनं तु निषेधरूपतया। (दि० प्र०) 3 अन्त: कार्य सुखादि । (ब्या० प्र०) 4 अव्यवस्थितमस्त्येव नास्त्येवेति अव्यवस्थितं तच्च सर्वे तदनेकान्तात्मकञ्च तदर्थकृत् । वक्ष्यमाणव्याख्यानद्वयापेक्षयवमुक्तं तदनपेक्षया त्वस्त्येव नित्य एव भिन्न एव एवमनेके धर्माः संभवन्ति भावः पररूपाणामानन्त्यात्ततो व्यावृत्तिरूपप्रतिषेधानामाप्यानन्त्याद्युक्तमेव विशेषणानामानन्त्यम् । (दि० प्र०) 5 सांख्यो वदति । (दि० प्र०) 6 समारूढं वस्तु । उत्पत्तिविभागादि । (दि० प्र०) 7 आक्रान्तम् । (ब्या० प्र०) 8 सहकारिदेशकालप्रमुखसापेक्षस्य कथञ्चित्सतोविद्यमानस्यैव कार्योत्पत्तिर्भवति । (दि० प्र०) 9 कथम् । (ब्या० प्र०)
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