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अष्टसहस्री
[ कारिका २०
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि एक धर्मी में नास्तित्व धर्म भी अपने प्रतिषेध्य-अस्तित्व के साथ अविनाभावी है क्योंकि वह विशेषण है जैसे कि अभेद विवक्षा अन्वय की अपेक्षा से किसी अनुमान में वैधर्म्य, साधर्म्य के साथ अविनाभावी है।
बौद्ध-अस्तित्व और नास्तित्व विशेषण ही हैं विशेष्य नहीं हैं इसलिये वे परमार्थरूप साध्य साधन के आधार नहीं हो सकते हैं अतः वे अस्तित्व, नास्तित्वरूप धर्म और जीवादि धर्मी वास्तविक नहीं हैं । वे दोनों विशेषण शब्द से भी नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि वस्तु का स्वरूप अवाच्य है।
योग-वे अस्तित्व, नास्तित्व धर्म जीव आदि वस्तु से अत्यन्त भिन्न ही हैं क्योंकि उनका प्रतिभास भेद पाया जाता है जैसे कि घट-पट आदि भिन्न-भिन्न हैं इसलिये वस्तु अस्तित्व, नास्तित्वस्वरूप नहीं है अन्यथा धर्म और धर्मी में संकर हो जावेगा।
जैन-जीवादि पदार्थ शब्द के विषयभूत हैं क्योंकि वे विशेष्य हैं एवं वे सभी जीवादि पदार्थ विधि-प्रतिषेधरूप दोनों धर्मस्वरूप हैं। जैसे साध्य का धर्म अपेक्षा से हेतु और अहेतु दोनोरूप हो जाता है।
"शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिमत्त्वात् कृतकत्वात्" इस प्रयोग में जो साध्य धर्म उत्पत्तिमत्त्व एवं कृतकत्व हैं वे अनित्य साध्य की अपेक्षा से हेतु हैं, तथा नित्य साध्य की अपेक्षा से अहेतु हैं । इस अनुमान से सभी जोवादि पदार्थ सत्त्वासत्त्वात्मक सिद्ध हो जाते हैं। अर्थात् 'कथंचित् सर्वोऽपि जीवादिपदार्थो विधेयप्रतिषेध्यात्मा, विशेष्यत्वात् यथा कृतकत्वादिहेतुः” यहाँ जैसे कृतकत्वादि हेतु अनित्य को साध्य करने से हेतु एवं नित्य साध्य की अपेक्षा से अहेतु हैं।
__ यदि बौद्ध कहे कि सकल विकल्पों से रहित स्वलक्षण ही प्रत्यक्षज्ञान में झलकता है, अस्तित्वादि विशेषण नहीं झलकते हैं, यह कथन भी सारहीन है क्योंकि प्रत्येक वस्तु अस्तित्वादि अनेक विकल्पात्मक एवं विधि-निषेधादि भेदों से अंश सहित ही प्रतीति में आ रही है इसलिये “सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही स्वलक्षण है" सकल विकल्पातीत विशेषमात्र स्वलक्षण नहीं है।
जिस प्रकार से वस्तु के अस्तित्व नास्तित्व और उभय धर्म अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी हैं, क्योंकि वे विशेषण हैं, विशेष्य हैं, शब्दगोचर हैं और वस्तुरूप हैं जैसे साधर्म्य और वैधर्म्य । तथैव 'अवक्तव्य' नाम का चौथा भंग भी स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति इन तीन वक्तव्य भंगों से अविनाभावी है।
सत्अवक्तव्यरूप पांचवां भंग असत्अवक्तव्यरूप छठे भंग के साथ असत्अवक्तव्य भंग, सत्अवक्तव्य के साथ अविनाभावी हैं और सांतवाँ भंग भी पांचवें छठे रूप अनुभय अवक्तव्य के साथ अविनाभावी है। इस प्रकार से अपने प्रतिपक्ष धर्म के साथ अविनाभाव सिद्ध करने में कुछ भी विरोध नहीं है, अतएव हे मुनीन्द्र ! हे भगवन् ! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं है किन्तु अन्य मतावलंबी एकांतवादियों के यहाँ ही विरोध देखा जाता है।
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