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स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है । प्रथम परिच्छेद
[ ३९७ - [यद्वस्त्वर्थक्रियाकारि तद्विधिप्रतिषेधकल्पनया सप्तभंगीविधिसहितमिति समर्थयंत्याचार्याः ]
ततो यदर्थक्रियाकारि तद्विधिप्रतिषेधकल्पनोपकल्पितसप्तभङ्गीविधौ' समारूढं विध्येकान्तादौ वानवस्थितं, सदायेकान्ते, सर्वथार्थक्रियाविरोधादिति सूरिमतम् । नन्वेवं सुनयापितस्य विध्यंशस्य निषेधांशस्य चार्थक्रियाकारित्वे तेन व्यभिचारी हेतुः, तस्य सप्तभङ्गीविधावसमारूढत्वादन्यथानवस्थानात्, तस्यानर्थक्रियाकारित्वे सुनयस्यावस्तुविषयत्वप्रसक्तेः, वस्तुनोर्थक्रियाकारित्वादिति कश्चित्तदयुक्तं, सुनयापितस्यापि विधेरनिराकृतप्रतिषेधस्यार्थक्रियाकारित्वादन्यथा दुर्णयापितत्वापत्तेः । न चासौ' सप्तभङ्गीविधावसमारूढः, भङ्गान्तरा
[जो वस्तु अर्थ क्रियाकारी है वह विधि प्रतिषेध कल्पना से सप्तभंगी विधि सहित है
इस प्रकार से जैनाचार्य समथन करते हैं । इसलिये जो अर्थक्रियाकारी है वह विधि-प्रतिषधकल्पना से उपकल्पित सत्तभंगीविधि में समारूढ़ है अथवा जो विधि आदि एकान्त में अनवस्थित है वही अर्थक्रियाकारी है क्योंकि सत् आदि एकान्त में सर्वथा ही अर्थक्रिया का विरोध है, यह स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य का मत है।
बौद्ध-इस प्रकार से तो सुनय-सापेक्षनय से अर्पित विधिअंश और निषेधअंश में हो अर्थक्रियाकारीपना सिद्ध करने पर उसी विधिअंश और निषेधअंश से “सर्वथा अर्थक्रियाविरोधात्" यह हेतु व्यभिचरित हो जाता है, क्योंकि ये विधि और निषेधअंश सप्तभंगीविधि में समारूढ़ नहीं हैं, अन्यथा
से अनवस्थित हैं अर्थात सप्तभंगीविधि में एक सत्त्व अथवा असत्त्व को लेकर ही सातभंग घटाये जाते हैं । इसलिये वे एक-एक अंश पृथक रूप से अर्थक्रियाकारी नहीं हैं ऐसा होने पर सापेक्ष नयों को अवस्तु को विषय करने का प्रसंग आता है क्योंकि वस्तु ही अर्थक्रियाकारी है ऐसा माना गया है।
जैन—यह कथन भी अयुक्त ही है, सुनय से अर्पित जो विधि है उसने अपने प्रतिषेध का निरा. करण नहीं किया है इसलिये वह अर्थक्रियाकारी है। अन्यथा यदि प्रतिषेध से निरपेक्षविधि अर्थक्रियाकारी है तब तो दुर्नय से अर्पित की आपत्ति आ जाती है। अर्थात् वे सुनय निरपेक्ष होने से सुनय नहीं रहते हैं, किन्तु कुनय या दुर्नय बन जाते हैं ।
| विधिपरम्। समाक्रान्तम् । जीवादिवस्तुपक्षः विधिप्रतिषेधकल्पनोपकल्पितसप्तभंगीविधी समारूढं भवतीति साध्यो धर्मः। अर्थक्रियाकारित्वात् । यदर्थक्रियाकारि तद्विधिप्रतिषेधकल्पनाविधौ समारूढं यथा स्वर्ण केयुरादिसंस्थानम् । अर्थक्रियाकारि चेदं तस्माद्विधिप्रतिषेधकल्पनोपकल्पितसप्तभंगीविधी समारूढं भवतीति स्याद्वादी कृतानमानम् । (दि० प्र०) 2 जीवादिवस्तुपक्षोऽस्तित्वकान्ते नास्तित्वैकान्ते वा समारूढं भवतीति साध्यो धर्मः । अर्थक्रियाकारित्वात् । (दि० प्र०) 3 निषेधपरम् । (दि० प्र०) 4 संदिग्धान कान्तिकत्वे सत्याह । (दि० प्र०) 5 अर्थक्रियाकारित्वादिति हेतुः सुनयापितकांशेन व्यभिचरति । (दि० प्र०) 6 सापेक्षनिषेधस्य । (दि० प्र०), 7 विधि: एकांशः । (दि० प्र०)
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