Book Title: Ashtsahastri Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 441
________________ ३७२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १७ सर्वस्य परिणामित्वादौ साध्ये सपक्षेन्वयो' न संभवत्येवेति चेन्न, अन्तर्व्याप्तिलक्षणस्य तथोपपत्तिरूपस्यान्वयस्य सद्भावादन्यथानुपपत्तिरूपव्यतिरेकवत् । न हि दृष्टान्तर्मिण्येव साधर्म्य वैधर्म्य वा हेतोः प्रतिपत्तव्यमिति नियमो युक्तः, सर्वस्य क्षणिकत्वादिसाधने सत्त्वादेरहेतुत्वप्रसङ्गात् । यतश्चैवं सर्वत्र हेतौ साधर्म्य वैधhणाविनाभावि प्रसिद्धमुदाहरणं' 'तस्माद्यद्विशेषणं तत्प्रतिषेध्याविनाभावि क्वचिद्धर्मिणि', यथा साधम्यं भेदविवक्षया कृतकत्वादी, विशेषणं चास्तित्वं, ततः प्रतिषेध्यधर्मप्रतिबन्धि इत्यनुमानमनवद्यमवतिष्ठते, हेतोरसिद्धताद्य सपक्ष में अन्वय सम्भव ही नहीं है क्योंकि जो भी दृष्टांत की कोटि में आवेगा वह पक्ष में ही अंतर्भूत हो जावेगा। ऐसी हालत में जब हेतु में साधर्म्य ही नहीं बनता तब वैधर्म्य के साथ उसका अविनाभाव भी कैसे बनेगा ? जैन-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि उन हेतओं में भी तथोपपत्तिरूप (साध्य के होने पर ही साधन का होनारूप) अंतर्व्याप्तिलक्षण अन्वय का सद्भाव है अन्यथानुपपत्तिरूप व्यतिरेक के समान । अर्थात् साध्य के अभाव में साधन के न होनेरूप व्यतिरेक जैसे होता है, उसी प्रकार अंतर्व्याप्तिलक्षण अन्वय भी सभी हेतुओं में विद्यमान है। तथोपपत्ति का नाम साधर्म्य है एवं अन्यथानुपपत्ति का नाम वैधर्म्य है । ये दोनों बातें हेतुओं में रहा करती हैं। "दृष्टांत धर्मी में ही हेतु का साधर्म्य अथवा वैधर्म्य समझना चाहिये ।" ऐसा नियम करना भी युक्त नहीं है, अन्यथा सभी वस्तु को क्षणिकत्व आदि सिद्ध करने में सत्त्वादि हेतु अहेतु हो जावेंगे। "सर्वं क्षणिक सत्त्वात् । यत्सत्तत् क्षणिक यथा अमुक' इन सभी अनुमानों में कहे गये सभी हेतु अहेतु हो जावेंगे। इसीलिये सभी हेतु में साधर्म्य वैधर्म्य के साथ अविनाभावी है, यह उदाहरण प्रसिद्ध है। इसलिये किसी धर्मों में जो विशेषण है, वह प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी है। जिस प्रकार से कृतकत्व आदि हेतु में भेदविवक्षा से साधर्म्य वैधर्म्य के साथ अविनाभावी है। यहाँ कारिका में "अस्तित्व" यह विशेषण है, इसीलिये वह अपने प्रतिषेध्य नास्तित्व के साथ अविनाभावी है। अतः यह अनुमान निर्दोष है क्योंकि हेतु में असिद्ध विरुद्धादि दोष नहीं पाये जाते हैं और इसके उदाहरण में साध्य-साधन धर्म की विकलता का भी अभाव है तथा पक्ष में भी प्रत्यक्ष आदि से विरोध नहीं आता है , ऐसा समझना चाहिये। 1 सत्त्वादेहेतोः । (दि० प्र०) 2 सर्व पक्षः परिणामि भवतीति साध्यो धर्मः प्रमेयत्वात् यत्प्रमेयं तत्परिणामि यत्प्रमेयं न तत्परिणामि न इति व्याप्तिः । (दि० प्र०) 3 साधर्म्यवैधर्म्यञ्च हेतोदृष्टान्तर्धामणि स्यादिति परः । (ब्या० प्र०) 4 यस्मात्कारणात् । उक्तप्रकारेण । (दि० प्र०) 5 अन्तर्बहिर्व्याप्तिलक्षणे । सद्धेतौ इति भावः । (दि० प्र०) 6 अन्तर्बहिर्व्याप्तिप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 7 कारणात् । (दि० प्र०) 8 विशेषणं कारिकायां व्याप्तिरियम् । (दि० प्र०) 9 भेदो व्यतिरेको वैधर्म्यमित्यर्थः । (ब्या० प्र०) 10 क्वचिद्धमिणिसाधर्म्य प्रतिषेध्याविनाभाविविशेषणत्वात् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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